यातुधान वंश अप्सरा वंश व श्रोरुह जाति का इतिहास

यातुधान वंश - दक्ष पुत्री सुरसा जो कश्यप की छठीं पत्नी थी, उसके यातुधान नाम का पुत्र पैदा हुआ (देखें कश्यप वंश का वंश वृक्ष ) । सुरसा पुत्र यातुधान के वंशधर यातुधान जाति के नाम से विख्यात हुये । यातुधान जाति के लोग बड़े शौर्यवान तथा योद्धा होते थे । यह 'लोग प्रायः सैनिकों का कार्य करते थे और दूर-दूर तक युद्ध करने जाते थे । यातुधान को संतीसवीं- अड़तीसवीं पीढ़ी तक इस जाति की संख्या बहुत बढ़ गई थी। यह लोग सैनिक होने के नाते दूर तक फैलते -और बसते गये, यहाँ तक कि अपने मूल स्थान से चल कर यह लोग आन्त्रालय (आस्ट्रेलिया) तथा लंका के आस-पास द्वीप समूहों में बस गये। पहले यह लोग पोलस्त - वैश्रमण, कुवेर के साथ लंका में रहकर कुवेर की यक्ष संस्कृति ( यक्ष जाति) ग्रहण कर लिया, और बाद में पौजास्ति वैश्रमण रावण के राज्य में रहकर लंकावासियों के साथ रक्ष संस्कृति ग्रहण कर लिये, और राक्षस कहे जाने लगे ।

यहाँ यक्ष और रक्ष संस्कृति पर संक्षेप में कुछ लिखना आवश्यक समझता हूँ। जिस प्रकार हिन्दू संस्कृति (जाति) में अनेकों जातियाँ हैं, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि तथा अनेक और भी उप-जातियाँ हैं किन्तु इन सभी जातियों को हिन्दू कहते हैं । इस्लाम में शेख, संयद, मुगल, पठान, तातारी, अफगानी आदि अनेक जातयाँ हैं किन्तु सब अपने को मुसलमान कहते हैं । यही बात यक्ष और रक्ष संस्कृति में भी है। लंका में देव, दानव, दैत्य, यातुधान, नाग, आर्य, अनार्य आदि अनेक जातियाँ निवास करती थीं, जब वहाँ कुबेर ने अपना राज्य स्थापित किया तो उक्त सभी जातियों को यक्ष नाम देकर एक झंडे तले ले आया जिससे सभी जातियों में सौहार्द बढ़े और एक विचार के हो जायें। जब रावण जो कुबेर का सौतेला भाई या, कुबेर से लंका का राज्य छीन स्वयं वहाँ का अधिपति बना तो उसने रक्ष संस्कृति की नींव डाली । रक्ष संस्कृति क्या है - इसे आप रावण के मुख से ही सुनिये - जब रावण अपनी विजय यात्रा करते हुये कैलास पहुँचा तो वहाँ शिव से पहले, विग्रह किया किन्तु हारकर शिव की शरण हुआ । शिव ने पूछा, तुम्हारी यह रक्ष संस्कृति क्या है ? रावण ने जवाब दिया- आप देखते हैं आर्यों ने आदित्यों से पृथक होकर भरत खण्ड में आर्यात्रत बना लिया है। वे निरन्तर आर्य- जनों को वहिस्कृत कर दक्षिणारण्य में भेजते रहते हैं । इन वहिस्कृत आर्य व्रात्यों के वहाँ अनेक जनपद बस गये हैं । भारतीय सागर के दक्षिण तट पर अनगिनत द्वीप समूह हैं, जहाँ सब आर्य, अनार्य, आगत, समागत, देव, यक्ष, किन्नर, पितर, नाग, दैत्य, दानव, जटायु आदि परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध करके रहते हैं, फिर भी सब की संस्कृति भिन्न है, जब हम सब एक ही मूल पुरुष की संतान हैं और आपस में दायाद बन्धु हैं तो हमारी संस्कृति में इतनी भिन्नता क्यों है, मैं चाहता हूँ कि इस रक्ष संस्कृति में सबका समावेश हो, सभी की रक्षा हो, सब की रीति- परम्परायें एक हो जायें, शक्तिशाली, निर्बल को न सतावे वरन उसका रक्षक बने, इन्हीं भिन्न- ताओं के कारण एक सौ वर्ष में तेरह भीषण देवासुर संग्राम हुआ, कितना रक्तपात हुआ । यदि यह सभी जातियाँ रक्ष संस्कृति के अन्तर्गत एक संघ बनाकर एक साथ सोचें, एक साथ कहें तथा एक विचार पर चलें तो सब की रक्षा संभव है। यही है मेरी रक्ष संस्कृति का मूल उद्देश्य । इस रक्ष संस्कृति को मानने वाले रक्षस या राक्षस कहे गये ।

अस्तु, रावण की रक्ष संस्कृति को दैत्य, दानव तथा यातुधान जाति वाले, सभी स्वीकार करके राक्षस कहलाये । इस संस्कृति से आर्य धर्म का निर्वाह नहीं हो रहा था, जिससे राम ने रावण को मार, रक्ष संस्कृति समाप्त कर आर्य सभ्यता की स्थापना कर उसे सुदृढ़ किया ।

वास्तविकता यह है कि रावण ने वेदों पर एक भाष्य लिखा था, जिसमें नरमांस भक्षण, कुमारीबध, ब्राह्मणवध, पशुवध तथा पशु यज्ञ, यज्ञ की वाम विधि, मदिरा का सेवन, स्त्री हरण असुर विवाह पद्धति, स्त्रियों से मुक्त सहवास आदि वाम मार्गों को विशेषता दी गई थी। यह भाष्य कृष्ण आयुर्वेद के नाम से विख्यात हुआ । इन उपरोक्त वाम विधियों से आयों की मुख्य तथा उत्तम सभ्यता का दमन हो रहा था, जिसके कारण तपस्वियों, आर्यों, देवों, नागों तथा मानवों ने राम से वन प्रवास काल में रावण वध के लिये प्रार्थना किया था। यही कारण या किराम सूपर्णखा के राज्य में जाकर उसको बल बुद्धि का भेद लिया, सूपर्णखा की नाक काट रावण को चुनौती दिया, तथा सीता हरण के बाद युद्ध में रावण को मारकर आर्य सभ्यता को दुबारा सुदृढ़ किया ।

श्रोरुह जाति - कश्यप के इड़ा नामक पत्नी से श्रोरुह नाम का पुत्र पैदा हुआ, इसी श्रोरुह के वंशधर श्रोरुह जाति के नाम से विख्यात हुये ।' यह श्रोरुह लोग अपना निवास कहाँ बनाया और इनकी क्या सभ्यता थी इस विषय में हमें कोई लेख पढ़ने को नहीं मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि यह लोग दैत्यों, दानवों, असुरों, या देवों में घुल मिल गये । पुराणों में अनेक स्थानों पर श्रीरुह जाति का नाम उल्लिखित है किन्तु इनके विशेष कार्यकलापों का वर्णन नहीं पाया जाता ।

अप्सरा गण - अप्सरा नाम का पुत्र कश्यप की मुनी (८) नामक भी पत्नी से उत्पन्न हुआ । उसी अप्सरा के वंशजों की अप्सरा जाति बनी। कुछ लोगों की धारणा है कि अप्सरा इन्द्र सभा में नाचने-गाने वाली स्त्रियाँ ही हैं, किन्तु यह भ्रम मात्र है, वास्तव में अप्सरा एक जाति का नाम है । अप्सराओं के विषय में पुराणों में अनेक स्थलों पर लेख और कथायें पढ़ने को मिलती हैं, किन्तु अब यह जाति किस नाम से पुकारी जाती है इनका ठीक पता नहीं चलता । ऐसा प्रतीत होता है कि अप्सरा जाति गंधवों में मिलकर विलीन हो गई । पुरातन लेखों में अनेक स्थलों पर अप्सराओं के कुछ नाम भी लिखे हुये मिलते हैं । उन सब का संकलन कर यहाँ कुछ नाम दिये जा रहे हैं। अनुचाना, अनवद्या, गुणमुख्या, गुणवसा अद्रिका, सोमा, मिश्र केशी, अलम्बषा, मरिचि, सुचिको विद्यतदर्णा, तिलोत्तमा, अम्बिका, लक्षण, क्षमा, देवी, रम्भा, मनो- रमा, असिता, सुवाहु, सुप्रिया, वपु, पुन्डरीका, सुगन्धा, सुरसा, प्रमाथिनी, काम्या शारद्वती, मेनका, सहजन्दा, कणिका पूँजिक, स्थला, ऋतुस्थला, घृताची, विश्वाची, पूर्व चित्ति, उमलोचा, प्रमलोचा आदि । इनमें पुरुष तथा स्त्रियाँ भी हैं । हैं 1

उपरोक्त नामों में पुरुषों और स्त्रियों के सम्मिलित नाम हैं, तथा कुछ नामों से अलग कुलों का भी संकेत मिलता है । यह लोग देव लोक के निवासी थे। इस जाति में नृत्य, गान, संगीत, कला, वाद्य कला तथा श्रृंगार कला की विशेषता रही है। इन अप्सरा- स्त्रियों से देवों का स्वच्छन्द सहवास तथा मनोरंजन आदि का संकेत प्राचीन लेखों से प्राप्त होता है । इनके पुरुषों में नाट्यकला तथा वाचकला आदि के गुण मुख्य रूप से पाया जाता था, तथा स्त्रियों में नृत्य, गान तथा शृंगार आदि को प्रधानता थी। जिस प्रकार वर्तमान कत्थक लोग अपने गान, वाद्य, नृत्य आदि संगीत कला से मुग्ध - विमोहित करके दर्शकों को आश्चर्य चकित कर देते हैं, उसी प्रकार यह अप्सरा पुरुष तथा स्त्रियाँ इस विषय की महान विज्ञ थीं। ऐसा जान पड़ता है कि गंधर्व विद्या और अप्सराओं की कलायें सम्मिलित रूप से इन कत्थकों को विरासत के रूप में मिली हैं ।

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