ब्रह्मा की उत्पत्ति

ब्रह्मा की उत्पत्ति—ब्रह्मा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मुझे जो भी लेख पढ़ने को मिले हैं, उन सबमें कुछ न कुछ मतभेद पाया जाता है। पुराणों में भी बहुत मतभेद है । कहीं त्रिगुणा- त्मक सृष्टि से सम्बन्धित उत्पत्ति कही गई है तो किसी में स्वयं उत्पन्न होने की बात कही गई है, किन्तु अधिकांशतः ब्रह्मा को क्षीर सागर सायी भगवान विष्णु की नाभि से निकले हुये कमल से उत्पन्न हुआ बताते हैं । यद्यपि यह बात यथार्थता के अधिक निकट तो प्रतीत होती है, किन्तु पैदा होने का ढंग कल्पित रूपक बना कर रहस्यमय कर दिया गया है । बिना पुरुष तथा स्त्री के संसर्ग से स्वतः ही पैदा होने की बात निर्मूल है और इसी संदेह का लाभ उठाकर इसे केवल कल्पित रचना कह देने का साहस किया जा सकता है। ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु से हुई, अस्तु सर्वप्रथम हमें इस पर विचार करना है कि विष्णु कौन थे ? किस कुल या वंश में उनकी उत्पत्ति हुई तथा उनका और उनके वंशजों का मूल निवास कहाँ था ? इन बातों का सूक्ष्मता से विचार करने तथा अन्य लेखों को देखने से एक स्पष्ट तथ्य हमें प्राप्त होता है। पुरातन लेखों के अनु- सार विष्णु क्षीर सागर के निवासी थे और क्षीर सागर वर्तमान अराल सागर को कहा जाता था । यह अराल सागर कैस्पियन सागर के पूर्वोत्तर में लगभग छः सौ किलोमीटर दूर है जो आजकल रूस की सीमा में है । पहले यह स्थान नागों (नाग वंश) का मूल निवास बना था । यह स्थान पहले चाक्षुप मनु के पुत्र महाराज "उर" के राज्य में था । उर के लेख में आपने पढ़ा होगा कि उर के वंशजों की तीन मुख्य शाखायें थीं। एक शाखा उरजन नामक स्थान में, दूसरी उर लोक में और तीसरी शाखा कर्तार नामक नगर में निवास करती थी । (यह करतार नामक स्थान अब कतार के नाम से एक प्रदेश है ) । करतार में रहने वाले करतार वंश के नाम से विख्यात हुये । इसी करतार वंश में जो क्षीर सागर के समीप था, उसी करतार वंश में विष्णु पैदा हुये (विष्णु को अब भी कर्ता की उपाधि से सम्बोधित किया जाता है ।) विष्णु महान शौर्यवान, प्रतिभाशाली, वीर्यवान तथा अजेय योद्धा थे। इन्होंने क्षीर सागर के निवासी नाग- वंश तथा उसकी सीमा पर रहने वाले गहण वंशियों को विजित करके अपना विशाल राज्य स्था- पित किया ।' विष्णु के वंशज भी विष्णु कहे गये तथा उनकी जाति को करतार कहा जाता था । पूर्व प्रचलित प्रथा के अनुसार प्रथम विष्णु के मरने पर उस गद्दी पर जो भी विष्णु का पुत्र-पौत्र बैठा, उसे भी विष्णु कहा जाता था। प्रथम विष्णु की सातवीं पीढ़ी के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि यह विष्णु वंश भी देवों में मिल गया। प्रथम विष्णु के बाद इस वंश की ४५ पीढ़ियों तक का ही उल्लेख हमें पुरातन ग्रंथों से प्राप्त होता है । यह वंश त्रेता में दशरथ के समय तक था और उसके बाद पूर्ण रूप से समाप्त हो गया प्रतीत होता है, क्योंकि राम वाद विष्णु के किसी भी कार्य कलाप का वर्णन हमें पुरातन ग्रंथों में नहीं प्राप्त होता ।

यह विष्णु वंश त्रेता में रावण काल से पहले एक बार लंका पर आक्रमण करके लंका के अधिपति तथा संस्थापक "हेति और प्रहेति" नामक दैत्य राजाओं को मारा था। हेति - प्रहेति को मारने वाला विष्णु इस वंश का ४४वाँ विष्णु था । निःसंदेह इतने दिनों तक प्रथम विष्णु नहीं जीवित रह सकता, क्योंकि कोई भी मानव शरीर धारी इतने दिनों तक जीवित नहीं रह सकता । भ्रम तथा अन्धविश्वास की बात दूसरी है ।

विष्णु प्रथम की पाँचवी पीढ़ी में जो विष्णु करतार विष्णु की गद्दी पर बैठा, उसके एक पुत्र का नाम नाभि विष्णु करतार था। नाभि विष्णु के पुत्र कमल करतार हुये और कमल करतार से ब्रह्मा करतार की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा की उत्पत्ति का समय सतयुग तथा नेता का संधिकाल माना जाता है। यह समय पुरातत्व विदों के अनुसार लगभग ईसा पूर्व ३००० वर्ष अनुमान किया जाता है ।

करतार तथा उसके आस-पास रहने वाले उर के वंशधरों में उर की चौथी पीढ़ी में (देखें उत्तानपाद शाखा का वंश वृक्ष) राजा पृथुवैन्य हुआ (देखें पृथुवेन का लेख ) जिसने वेदों की पहली ऋचा बनाई, उसी समय को वेदोदय काल कहा जाता है। करतार निवासी ब्रह्मा करतान ने वेदों की ऋचायें, चाहे वह किसी के द्वारा भी रची गई हो, अपनी स्मृति में रख कर और उनका संकलन करके वेद रचना में अग्रणी हुये तथा वेदों की ऋचाओं को धारण किया, जिससे उन्हें वेद धारी भी कहा जाता है । ब्रह्मा के चार मुख बताकर उन्हें चतुरानन भी कहा जात है । वास्तव में ब्रह्मा के चार मुख नहीं थे और वह भी हमारी आपकी तरह एक मुखी थे
किन्तु चारों वेदों को धारण-संकलन करने से उसी का प्रतीक चतुरानन कह कर सम्बोधित किये गये ।

ब्रह्मा के १० पुत्रों का वर्णन अनेकों पुरातन ग्रंथों से प्राप्त होता है । इन पुत्रों को ब्रह्मा का मानस पुत्र भी कहा गया है । मानत का अर्थ है माना हुआ, किन्तु कहीं कहीं इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है कि ब्रह्मा के मानस पटल अर्थात् इच्छा मात्र से यह पुत्र पैदा हुये थे । इच्छा मात्र से पैदा होना भी एक कल्पित विचार ही कहा जा सकता है। ब्रह्मा के सभी पुत्रों का वर्णन यहाँ विस्तारमय के कारण नहीं किया जा रहा है।

ब्रह्मा के अनेक पुत्र-पौत्रों ने ब्रह्मा के नाम पर ब्रह्म वंशत्व धारण कर ब्रह्म वंशी कहलाये । और उनके वंशधर भी अनेक शाखाओं में परिणित हो गये । इन शाखाओं में शाक द्विपीय, सिंघल द्विपीय तथा जम्मू द्वोपियों की तीन मुख्य शाखायें मानी जाती हैं । किन्तु यह ब्राह्मण नहीं थे ।

शाकद्वीपीय वंश ईरान में, सिंघल द्वीपीय आन्त्रालय (आस्ट्र ेलिया) तथा वहाँ से पूर्व एशिया के अनेक देशों में तथा जम्मू द्विपीय वंशधर शाक द्वीप तथा आन्ध्रालय के मध्यवर्ती भाग ( आर्याव्रत ) में निवास करने लगे । यद्यपि सभी लोग एक ही भूल पुरुष के वंशधर हैं किन्तु अलग-अलग स्थानों में रहने के कारण इनका स्थान जन्य नाम शाक द्वीपीय सिंगल द्वीपीय तथा जम्मू द्वीपीय पड़ गया। ब्राह्मणों के सम्बन्ध में विस्तृत लेख आपको ब्राह्मण खण्ड में पढ़ने को मिलेगा ।

ब्रह्मा के पुत्रों ने ब्राह्मणत्व धारण नहीं किया वह स्वायंभुव मनु की पत्नी सतरूपा के नाम पर शत्रिपी या शत्रय कहलाये, जो कालान्तर में शत्रप से क्षत्रप और बाद में क्षत्रिय कहे गये । ब्रह्मा के इन क्षत्रिय पुत्रों से अनेक वंश की शाखायें चलीं और विश्व के अनेक भागों में फैल गई । इन सभी शाखाओं का वर्णन अतिलेखभय से यहाँ पर नहीं किया जा रहा है, किन्तु उनमें से केवल एक पुत्र " मरीचि " की शाखा तथा वंश का वर्णन आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ।

मरीचि -नरीचि ब्रह्मा के पुत्र थे (देखें ब्रह्म पुराण, भागवत पुराण, हरिवंश, अग्नि, तथा भविष्य पुराण) ! मरीचि का व्याह राजा दक्ष (प्रथम या द्वितीय पीढ़ी) की पुत्री कला से हुआ था । इस व्याह सम्बन्ध को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि मरीचि राजा दक्ष के समकालीन थे । मरीचि से कला के केवल दो पुत्रों के पैदा होने का उल्लेख प्राप्त होता है । मरोचि के एक पुत्र का नाम अत्रि था जिसके पुत्र चन्द्र से चन्द्र वंश चला। चन्द्र वंश का विवरण आगे इसी पुस्तक में लिखा गया है । यह चन्द्र पिता अत्रि निसंदेह वह अत्रि नहीं थे जिनकी पत्नी अनु- तुझ्या थी और राम के वन प्रवास में जिससे राम का वार्तालाप हुआ था। मरीचि के दूसरे पुत्र का नाम “कश्यप" था, जिनके पुत्र सूर्य से सूर्यवंश की प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार चन्द्रवंश और सूर्यवंश नाम से दो पौराणिक क्षत्रिय शाखायें मरीचि से आरम्भ होती हैं, अस्तु इन दोनों वंशों (सूर्य तथा चन्द्र वंश) की मूल “शिखा " मरोचि के नाम से विख्यात है । सूर्य वंश का मूल कश्यप “गोत्र” तथा चन्द्र वंश का मूल गोत्र अत्रि है, किन्तु ज्यों-ज्यों इन दोनों वंशों की शाखायें तथा उपशाखायें बनती गई, त्यों-त्यों इन शाखाओं का गोत्र भी बदलता गया। गोत्र के विषय में इस पुस्तक में आगे आपको विवरण पढ़ने को मिलेगा ।

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि पौराणिक राजवंश तीन थे, जिनमें से मनुर्भरत वंश का विवरण आपने पढ़ लिया होगा। दूसरा राज वंश सूर्य वंश है, जिसके सम्बन्ध में निम्न लेख प्रस्तुत है । पहले देखें सूर्यवंश का संक्षिप्त वंश वृक्ष, जिसमें ब्रह्मा से सूर्य तक की नामावली है । सूर्य के बाद की नामावली सूर्य वंश के प्रस्तुत लेख में आपको देखने को मिलेगी । तीसरा पौराणिक राजवंश चन्द्र वंश है जिसका विवरण आप आगे पढ़ेंगे ।

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