कश्यप वंश का इतिहास

कश्यप वंश - कश्यप मरीचि के पुत्र तथा ब्रह्मा के पौत्र थे। इनका मूल निवास कश्यपी प्रदेश था ( Caspia Province ) । कश्यप के नाम पर अरव का कश्यप सागर जो ईरान के उत्तर और काला सागर के पूर्व में स्थित है, जिसे अब कैस्पियन सागर कहते हैं अब तक विख्यात है । कश्यप उस क्षेत्र का अधिपति था। उसके राज्य में वर्तमान तेहरान, बाबुल, वगदाद, बाकू, अस्त्राखान तुरगाई, (रूस में) चिम्बाई, बुखारा, और अस्कावाद आदि सम्मिलित थे । कश्यप अपने समय के महा विजेता, शौर्यवान, प्रतापी तथा प्रजा पालक थे । इनकी उत्तम राज्य व्यवस्था तथा प्रजा की सम्पन्नता के कारण इन्हें एक अवतार मान लिया गया था । संभवतः पुराणों में जो कच्छप अवतार कहा गया है, वह यही कश्यप थे। कश्यप को पुराणों ने प्रजापति कहा है, क्योंकि उनसे कई विशाल शाखायें तथा वंश चले । कश्यप के तेरह पत्नियाँ थीं। यह कश्यप पत्नियाँ दक्षवंश की कन्यायें थीं। इनके नाम इस प्रकार हैं- (१) अदिति जिससे आदित्य या सूर्य पैदा हुये जिनसे सूर्यवंश चला। जिसका विवरण आगे लिखा गया है । - (२) दिति, (३) दनु, (४) काष्टा, (५) अरिष्टा, (६) सुरसा, (७) इड़ा, (८) मुनी, (2) क्रोधवशा, (१०) ताम्रा, (११) सुरभी, (१२) सरमा, तथा (१३) तिमि । इन तेरह दक्ष पुत्रियों से तेरह जातियाँ बनीं, जिनका विवरण अलग-अलग लिखा जा

रहा है। (१) अदिति का पुत्र आदित्य या सूर्य हुआ, जिससे सूर्यवंश चला, जिसका विवरण आगे

लिखा गया है ।

• (२) दिति — कश्यप को दूसरी पत्नी दिति के दो पुत्र पैदा हुये, जिनमें से एक का नाम देव रक्खा गया तथा दूसरे पुत्र का नाम दैत्य रखा गया । देव नामक पुत्र से इन्द्र तथा मरुतगण पैदा हुये । इन्द्र ने अपने पिता देव के नाम से देववंश चलाया और उस देववंश का प्रथम सम्राट बना । यह मरुत गण पहले देवों में सम्मिलित न होकर एक मरुत वंश की अलग स्थापना किया । जब यह मरुतवंश अधिक बढ़ा तो इसमें शाखायें बढ़ती गई । मरुतों की शाखा बाद में ४९ हो गई। इस समय तक देवों का प्रभाव बहुत बढ़ गया था । उनके प्रभाव में आकर बाद में यह मरुतवंश में देवों से मिल गया और देव कहलाने लगा ।

वंश तालिका – ३

विष्णु करतार

नाभि करतार

कमल करतार

ब्रह्मा करतार ( मानसी )

मरीचि (कला) (क)

देव वंश की स्थापना करने वाला इन्द्र प्रथम था। उसने अपना राज्य स्थापित करके उसे बढ़ाया और सम्राट की पदवी धारण की। उसकी मुख्य गद्दी को इन्द्रासन कहा गया । उस इन्द्रासन पर इन्द्र प्रथम के जो पुत्र, पौत्र तथा प्रपोत्रादि क्रमवार बैठते रहे उन्हें भी इन्द्र हो कहा गया । निसंदेह इन्द्रासन पर एक ही इन्द्र नहीं था, वरन इन्द्र की कई पीढ़ियाँ उस इन्द्रासन पर बैठकर इन्द्र कहलाते रहे ।

इन्द्र का राज्य — इन्द्र का राज्य देव लोक के एलाम (ईरान) नामक स्थान पर था। उस काल में पंजाब और सिन्ध का संयुक्त नाम सप्त सिन्धु था, तथा उस पर वृत्र का अधिकार था । यह वृत्र असुर याजक भृगु के वंश का था तथा दासों का नेता था । देवराट इन्द्र ने पंच सिन्ध पर आक्रमण किया था । इन्द्र ने यह अभियान संभवतः फारस की खाड़ी के किनारे-किनारे आ कर किया था, तथा यह वर्तमान कराँची ( पाकिस्तान) के आस-पास सिन्ध में प्रविष्ट हुआ था । इसका स्पष्ट संकेत जातक अटुकथा के इक्कीसवें जातक के एक गाथा में है। फारस के उत्तर पूर्व से अफगानिस्तान और पामीर तक आरम्भिक वेदकाल में इन्द्र का राज्य था, जिसे बाद में सिंध और पंजाब तक भारत में उसका विस्तार कर लिया था । यह इन्द्र देवताओं का प्रथम सम्राट था। इन्द्र का यह साम्राज्य दैत्यों और दानवों के राज्यों की सीमा से अलग हुआ था और आये दिन इन लोगों का इन्द्र से युद्ध हुआ करता था । इन देवताओं के कुलगुरु वृहस्पति थे, जिनकी स्त्री तारा को अत्रिपुत्र चन्द्र ने अपने घर में रख लिया था, जिससे चन्द्रपुत्र बुध की उत्पत्ति हुई जिसका विवरण आगे लिखा गया है ।

देव- इस देव जाति या वंश की स्थापना इन्द्र ने अपने पितादेव के नाम पर किया था। देवजाति के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार श्री एल० डबल्यू० किंग द्वारा लिखित, हिस्ट्री आफ सुमेरु एण्ड अवकाड ( History of Sumer & Akkad) तथा हिस्ट्री आफ वेबीलोन, ( History of Babilonia) के अनुसार ईसा से पाँच हजार वर्ष पूर्व वर्तमान मेसोपोटामियों के दक्षिण पूर्व में सुमेरियन जाति के लोग आकर बसे । कुछ समय बाद सेमेटिक जाति वालों ने उन्हें जीत लिया । सेमेटिकों ने जिस प्रदेश को जीता, उसे अक्काड या आजाद कहने लगे। उसके दक्षिणी प्रान्त को सुमेर कहा गया। अक्काड और सुमेर का संयुक्त नाम वेबीलोनिया पड़ा। ईसा से १८०० वर्ष पहले 'केशी' जाति वालों ने बेबीलोनिया को जीत लिया। यह केशी जाति (देखें उत्तानपाद का वंशवृक्ष, अभिमन्यु के पुत्र केशी के वंशधर ) के लोग एलाम ( इलावर्त - ईरान) प्रदेश के रहने वाले बड़े अश्वारोही थे । एलाम में आदित्यों का भी निवास था। एलाम के इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि प्रमुख आदित्य पहले असुर कहे जाते थे । वैदिक साहित्य में असुर इन्द्र, वरुण आदि देवों के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है, किन्तु आगे चलकर ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों में अनेक स्थलों पर 'देवासुराः का प्रयोग देखा जाता है। इससे यह प्रतीत होता है कि ईसापूर्व दशवीं शताब्दी में ही देवों से असुरों को भिन्न समझा गया । वैदिक- काल में ही इन्द्र ने आदित्यों को संज्ञा भी देव रख दी थी, और इन्द्र स्वयं देवेन्द्र बन गया । बाद में बेबीलोनियाँ के अनेक सम्राट अपने को देव कहने लगे थे । इन्द्र ने आदित्यों के राज्यों को देवलोक कहकर सोमपान की प्रथा प्रचलित किया था। अनेक विद्वानों का ऐसा मत है कि ऋग्वेद की कुछ ऋचायें बेबीलोनियाँ में ही रची गई क्योंकि वाराह नामक आदित्य राजा द्वारा जब उसी काल में हिरण्याक्ष दैत्य का वध किया था उसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है । इसी बात को पौराणिक भाष्यकारों ने दूसरे रूप में लिखा है कि हिरण्याक्ष दैत्य पृथ्वी को लेकर पाताल चला गया, तो भगवान ने वाराह (सुअर) का रूप धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया । चौबीस अवतारों में इस वाराह को भी एक अवतार मान लिया गया है। उक्त राजा वाराह के मित्र राजा नृसिंह द्वारा जब हिरण्यकशिपु (हिरण्याक्ष का भाई) का वध किया गया और राजा नृसिंह ने दैत्यलोक भी अपने अधिकार में कर लिया तो ईलाम से हटकर अपुरो की इब्राहिम शाखा बेबीलोनियाँ में बस गई, जिसे बाद में शिव त्रिपुरारि ने जीता था। उक्त नृसिंह नामक राजा को कल्पना के आधार पर पुराणों में शेर और मनुष्यों का मिला-जुला रूप मानकर नृसिंह अवतार की कल्पना कर ली गई है। इन विवरणों का संकेत ऋग्वेद से प्राप्त होता है । असुरों की दूसरी शाखा सीरिया में जा बसी जो बाद में फोनेसिया नाम से विख्यात हुई । कुछ असुर बेबीलोनियाँ में देवों की प्रजा की भाँति रहने लगे। कुछ समय बाद असुरों ने अपना एक छोटा राज्य नमरुद में स्थापित किया, जिनकी जाति 'असि' थी। यह नमरुद - निमरी, असीरिया कुर्दिस्तान पौराणिक उत्तर कुरु हैं । सूर्य के स्वसुर विश्वकर्मा, विश्वरूप यहीं के राजा थे। इसी नमरुद राज्य के अन्तर्गत शिव स्थान में सोने की खान मिली थी, जहाँ यक्षपति कुवेर को शिव ने खजान्ची बनाया था । देवों के राज्यों में पहले कुछ असुर प्रजा की भाँति रहते थे, जो बाद में स्वतन्त्र राजा हो गये । ईसा पूर्व २७०० वर्ष तक असुरों ने अपने अनेक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिये । इतिहासकारों ने अनुसार तथा ईसापूर्व १३०० में देवों से बेबीलोनियाँ भी छीन लिया, किन्तु जल्द ही देवों ने उसे पुनः अधिकृत कर लिया ईसापूर्व ११०० में असुरों ने असोरिया जीत लिया। ईसापूर्व ७२२ में दैत्यराज सरगन और उनके मित्र दैत्य राजाओं में, मितानि या मित्तनि, 'ऋग्वेद में वर्णित मितज्ञ), हितेति, वेबीलोनियाँ, ईलाम तथा मित्र देश को देवों से जीत लिया । मणिपाल नामक असुर राजा में ईसापूर्व ६४८ बेबीलोनियाँ तथा ईसा - पूर्व ६४५ में सुषा के इन्दोबोगस को जीतकर शाकद्वीप (ईरान) में देवों का राज्य इन्द्रासन का अन्त कर दिया ।

वरुणपुरी सुषा जो इन्द्रपुरी या स्वर्ग कहलाती थी उसका नाम ही शेष रह गया, और वहाँ से देवों के लगभग सभी राज्यों का अन्त हो गया । इन देवों या सुरों का सुरपुर राज्य ईसापूर्व २४०० से ईसापूर्व ३४५ तक बना रहा, और बाद में अन्त हो गया । यह उपरोक्त विवरण श्री कनियम, कर्नल टाड, टालोमी डियोरस, प्लाइमी तथा चीनी इतिहासकारों के शाकद्वीप (ईरान) के वर्णन में मिलता है, जिसमें दो जातियाँ 'सू' और 'असी' का उल्लेख किया गया है, किन्तु यह सभी लेखों में अनिर्णीत ही रहा कि वह 'सू' और असी कौन थे । कुछ अन्य लेखों में यह संकेत मिलता है कि 'सू' लोग सुपा के सुर थे और 'असी' लोग सुरों के विमातृक भाई असीरियावासी असुर थे, जिन्हें पहले आदित्य व दैत्य कहा जाता था । सुरों के प्रधान देव 'विष्णु थे, (विष्णु देव नहीं थे किन्तु वाद में देव संज्ञा ग्रहण किया) और असुरों के उपास्य देव शिव थे । असुरों ने सेदियाज्म ( शैव) धर्म ग्रहण किया । यद्यपि सुर तथा असुर परस्पर भाई ही थे किन्तु धर्म और मत के विरोधी कारणों से तथा कुछ राजनैतिक कारणों से भी दोनों में भारी विरोध हो गया, जिसके फलस्वरूप ईसापूर्व १३०० के लगभग दोनों में ... रोटी-बेटी का सम्बन्ध बन्द हो गया। इन बातों को दाशरत्थि राम भली-भाँति जानते थे, और वन प्रवास काल में जब समुद्र तट पर राम ने रामेश्वर की स्थापना किया तो वहाँ यह नीति-रीति स्पष्ट किया, कि वैष्णव तथा शैव में कोई भिन्नता नहीं है, यह एक दूसरे के पूरक हैं। यहाँ एक राजनैतिक कारण भी था, जिससे दक्षिणारण्य निवासी जो रावण की रक्ष संस्कृति में शिव के उपासक थे, वह सब राम के पक्ष में हो गये। राम ने उन सब को सहायता से रावण को मारकर आर्य सभ्यता को निष्कंटक कर दिया, और अनायों का पतन हो गया ।

जैसा कि आप देखते हैं कि देवजाति की स्थापना करने वाला इन्द्र था । इन्द्र देवों का प्रथम सम्राट था । इन्द्र के मरने पर जो इन्द्रासन पर बैठा उसे भी इन्द्र कहा गया और इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी तक यही क्रम चलता रहा । इन्द्रासन पर बैठने वाले इन्द्रों के अलग-अलग नाम थे, जैसे मघवा या मधवात, तथा पुरन्दर आदि । इन्द्र पद की अधिक प्रतिष्ठा होने के कारण कोई नाम न लेकर इन्द्र हो कहता था, जिसके कारण इन्द्र के वंशजों की नामावली किसी को मालूम न हो सकी, यही कारण है कि इन्द्रनाम के अतिरिक्त और कोई नाम इन्द्र वंश का प्रचलित नहीं हुआ ।

पहले देववंश तथा दैत्यव दानववंश का आपस में विवाह सम्बन्ध होता था। क्योंकि प्रथम इन्द्र की पुत्री शची, पुलोमा जाति दानव वंश की कन्या थी। इसी प्रकार अन्य सम्बन्ध भी थे, किन्तु जब देवों और दैत्यों तथा दानवों का आपसी विरोध अधिक बढ़ गया तो दोनों में रोटी-बेटी का सम्बन्ध बन्द हो गया ।

देवों की अनेक जातियों में मंग नाम की भी एक जाति थी। मग जाति अग्नि और निक्षुभा के पुत्र मंग से चली (भविष्य पुराण, विष्णु पुराण) । मगों की एक और जाति थी । जो वशिष्ट वंशी थे, और यह मग लोग सोम के पुजारी थे। यह पहले मगों से भिन्न थे । वास्तव में 'देव' पहले एक जाति थी जिसने कालान्तर में प्रभाव बना लिया और वाद में देव जाति से देव धर्म जब वन गया तो प्रभावशाली होने से अनेक अदेव जातियों को देवधर्म में सम्मिलित कर लिया। बाद में सम्मिलित होने वाली जातियों में सूर्यवंश और चन्द्रवंश की कुछ शाखायें, अष्ट वसु आदि जो सूर्य वंशीयम के पुत्र और वंशज थे, जिसमें रुद्र शिव भी थे और विष्णु वंश, नाग वंश, गरुण और एलाम क्षेत्र के निवासी अनेक जातियाँ थीं । देवधर्म पर वैदिक धर्म का प्रभाव था और यही धर्म आर्यों के साथ आयंत्रित में प्रचारित हुआ जिसका वैदिक प्रभाव आर्यों पर था। आयों से हिन्दू धर्म की स्थापना हुई जिसमें कालान्तर में ब्राह्मण धर्म की शाखा का उदय हुआ । ब्राह्मण धर्म प्रचलित होने से पहले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियाँ ही हिन्दू धर्म के अनुयायी थे किन्तु ब्राह्मण धर्म का प्रचलन होने पर ब्राह्मण नाम की एक नई जाति का उदय हुआ जो धीरे-धीरे हावी होकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। यद्यपि इस धर्म में अनेक जटिलतायें आ गई हैं जिससे ब्राह्मण धर्म का पतन होता दिखाई पड़ रहा है

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