स्वायंभुव मनु का मनुर्भरत वंश

स्वायंभुव मनु का मनुर्भरत वंश - जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि तीन पौराणिक राजवंशों की वंशावलियों में मनुर्भरत वंश सबसे प्राचीन राजवंश हैं जो स्वायंभुव मनु से चला | स्वायंभुव मनु प्रथम मनु है। विश्व के अनेकों ग्रंथों का अध्ययन करने से पता चलता है कि सभी मनुष्यों की उत्पत्ति इन्हीं मनु से हुई है। संसार की भिन्न-भिन्न जातियों में मनु के भिन्न-भिन्न नाम मिलते हैं। आदीश्वर, अशिरीश, वाधेश, बैंकस, मीनस, आदम और मनु आदि नाम उस आदि पुरुष नूह के ही हैं। मनु का जीवन काल प्रथम मन्वन्तरि है। पुराणों में वर्णित स्वायंभुव मनु से लेकर उनके वंशजों का भोग काल ही सतयुग माना जाता है । पुरातत्व अनु- संधान के अनुसार सतयुग का भोग काल ई० पू० ६५६४ वर्ष से ईसा पूर्व ४५८४ वर्ष माना जाता है ।

स्वायंभुव मनु के दो पुत्र थे जिनका नाम प्रियव्रत तथा उत्तान पाद था । इन दोनों भाइयों से मनु वंश की दो शाखायें चलीं। एक शाखा प्रियव्रत के वंशजों की चली, जिसमें स्वायंभुव मनु समेत पाँच मनु और ३५ प्रजापति हुये, (देखें विष्णु पुराण में स्वायंभुव मनु प्रसंग, भागवत पु०, हरिवंश पु० तथा ऋग्वेद) दूसरी शाखा स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र उत्तान पाद से चली, जिसमें चाक्षुप मनु समेत ४५ प्रजापति और राजा हुये, (हरिवंश पु० ) ।

मनुर्भरतों की ६७ पीढ़ियों का यह भोग काल लगभग १८७६ वर्षों का माना जाता है, जिसे सतयुग (Heroic Age) कहते हैं । सतयुग में बड़ी-बड़ी राजनैतिक और सांस्कृतिक घटनायें हुई । इसी काल में ईरान, मित्र, पेलेस्टाइन, वेबीलोनिया और अफ्रीका आदि को मनुभरत देश के ६ भरत विजेताओं ने विजय करके अपने महान और विशाल राज्य वहाँ स्थापित किये। राजा की प्रतिष्ठा हुई, कृषि का उदय हुआ, राज्य व्यवस्था बनी, नगर व जनपद बसे, वेदों का उदय हुआ, युद्ध व्यवस्थित हुये, इसी काल में बैकुण्ठ नामक नगर का निर्माण हुआ, (इनका विवरण जानने के लिये देखें, हरिवंश पु०, विष्णु पु०, 'भागवत पु०, मत्स्य पु०, ब्रह्म पुराण तथा पाशिया का इतिहास प्रथम भाग ) ।

पहले इन लोगों का मूल स्थान वर्तमान अरव गण राज्य क्षेत्र में स्थित कास्पियन सागर युवन सागर के आस-पास कहीं था, किन्तु जब मनु के वंशजों की संख्या बढ़ी तो यह लोग समस्त पृथ्वी पर फैले । समस्त पृथ्वी का बँटवारा पहले सात द्वीपों में हुआ और बाद में जब और संख्या बढ़ी, तो पुनः बँटवारा हुआ और समस्त पृथ्वी को नो खंडों में बाँटा गया। भारत पहले सात द्वीपों में से जम्बू द्वीप के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बाद में जब नी खंडों में पृथ्वी का बँट- वारा हुआ तो यह नाभि वर्ष (नाभि देश) कहा जाने लगा, जो आगे चलकर भरत खंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । मनुर्भरत वंश का विवरण जानने के लिये पहले उनका वंश वृक्ष समझना पड़ेगा । स्वायंभुव मनु का वंश वृक्ष उनकी दोनों शाखाओं को अलग-अलग वंश तालिका एक तरह है-

स्वायंभुव मनु से पहले का समय प्रागैतिहासिक काल और मनु के समय से ऐतिहासिक- काल माना जाता है । स्वायंभुव मनु की स्त्री शतरूपा थी। (हरिवंश पुराण) इनके दो पुत्र थे जिनसे अलग-अलग दो शाखायें चलीं । प्रथम पुत्र का नाम प्रियव्रत था और दूसरे का उत्तानपाद था। प्रियव्रत के विषय में पुराणों में जो उल्लेख पाये जाते हैं, उनमें से कहीं की एक स्त्री और कहीं दो स्त्रियों का संकेत मिलता है । प्रियव्रत की शाखा में स्वयंभुव मनु के अतिरिक्त चार मनु और ३५ प्रजापति हुये । पहली स्त्री से उत्तम नामक मनु हुये जिनके वंशजों में तामस मनु और बाद में रैवत मनु के होने का संकेत मिलता है। प्रियव्रत को दूसरी स्त्री का नाम हिमत था जिससे १० पुत्र हुये । इन पुत्रों के नाम क्रमशः अग्निध, इमजिन्ह, यज्ञवाहु, महावीर, रुक्म, शुक्र, धृतपृष्ट, सवन मेधातिथि और कवि थे। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रियव्रत समस्त भू-मण्डल का शासक था, क्योंकि अपने जीवन काल में ही प्रियवत ने समस्त पृथ्वी को सात द्वीपों में बाँटकर अपने सात पुत्रों को वहां का अधिपति बना दिया था ( देवी भागवत ) । इसके दस पुत्रों में चौथा पुत्र महावीर, आठवाँ सवन और दसवाँ पुत्र कवि, यह तीनों तपस्वी हो गये थे और राज्य में कोई हिस्सा नहीं लिया, (देखें भागवत पुराण) ।

प्रियव्रत ने पहले वर्तमान पार्शियन के चार खण्ड सुग्द, मरु ( मर्व), हरिपुर और निशा नाम से प्रान्त बनाये थे, बाद में हरयू, हरितपुर, हिरात और वक्रित (काबुल) को मिलाकर साम्राज्य संगठित किया था। [देखें- पाशिया का इतिहास भाग प्रथम ( History of Persia Vol I.] जो पूर्वी और पश्चिमी साम्राज्य के नाम से विख्यात हुआ। इन पूर्वी और पश्चिमी राज्यों में पुनः तेरह प्रदेश बनाये गये, जिन्हें शत्रिपी कहा जाने लगा। यह शत्रिपो, शत्रप, शत्रपति; क्षत्रपति का शरूप शब्द क्षत्रप या क्षत्रिय कहा जाने लगा, ऐसा विद्वानों का अनुमान है, किन्तु शतरूपा का पुत्र शत्र या क्षत्रप भी माना जा सकता है, क्योंकि पहले मातृकुल (गोत्र) भी चलने का प्रचलन था जो दक्षिण भारत में कहीं कहीं अब भी प्रचलित है ।

प्रियव्रत ने अपने राज्य को सात द्वीपों में बाँटकर अपने सात पुत्रों को दे दिया । अग्नीध को जम्बू द्वीप (भारत), इध्माज को पलक्षद्वीप, यज्ञवाह को शाल्मलि द्वीप, रुक्म को कुशद्वीप ( अफ्रीका ), शुक्र को पुष्कर द्वीप, घृत पृष्ट को क्रौंचद्वीप, और मेधातिथि को शाकद्व बँटवारे में मिला, जहाँ के यह लोग अधिपति हुये । इस प्रकार यह वंश समस्त भूमण्डल पर फैल गया । जम्बुद्वीप के सबसे समीप शाकद्वीप था, इसके विषय में अनेकों विद्वानों का ऐसा अनुमान और मत है कि अग्नीध के वंशजों ने बाद में शाकद्वीप पर भी अधिकार कर लिया । यह जम्बूद्वीप और शाकद्वीप एक ही भूखण्ड पर होने से दोनों को मिलाकर एक विशाल साम्राज्य बन गया, जो आर्यों तक तथा उनके बहुत बाद तक कायम रहा। इस प्रकार जम्बूद्वीप (भारत) कैस्पियन सागर से ईरान, ईराक, साऊदी अरब, अफगानिस्तान और भारतवर्ष तथा उसके दक्षिण में कन्या कुमारी तक फैलकर एक महान साम्राज्य बन गया जहाँ पर अग्नीध के वंशजों का आधिपत्य रहा ।

अग्नीध के नौ पुत्र थे, जिनका नाम क्रमशः नाभि, हरि, किपुरुष, इलावृट, कुरु, केतु- मान रम्य, भद्राश्व, और हिरण्यवान था। अग्नीध ने अपने साम्राज्य को नौ खण्डों में बाँटकर अपने नौ पुत्रों को दिया। उनके पुत्रों ने अपने-अपने खण्ड का नाम अपने-अपने नाम पर रख लिया । नाभि के खण्ड का नाभि वर्ष हुआ । ( वर्ष अर्थात् देश) । हरि का हरि वर्ष, कि पुरुष वर्ष, इला- वृट का इलावृट वर्ष (ईरान), कुरु का कुरु वर्ष, केतुमान का केतुमान वर्ष, रम्य का रम्यक वर्ष या सुवर्णमय वर्ष, भद्राश्व का भद्राश्व वर्ष, और हिरण्यवान का हिरण्य वर्ष नाम पड़ा । इलावृट वर्ष जिसे अब ईरान कहा जाता है, उसमें चार प्रसिद्ध उपवन नन्दन वन, चैत्ररथ दन, वैभ्राज्य वन और सर्वभद वन थे जो पुराणों में वर्णित हैं । अग्निध्र ने पत्र को अपने साम्राज्य को नौ खण्ड करके बाँट दिया जिसमें अपने बड़े पुत्र नाभि को राज्य का मध्य भाग दिया । नाभि के पुत्र ऋषभदेव तीर्थाङ्कर हुये जिसे जैनमत लेना आदि गुरु मानते हैं । ऋषभ देव के पुत्र जड़भरत हुये, जो अपने समय के महान ज्ञानियों में गिने गये । जड़भरत की कथायें अनेक पुराणों में वर्णित हैं। जड़ भरत के विषय में लिखा गया है कि उन्हें एक मृग के बच्चे से अपार स्नेह हो गया था और बाद में उसके वियोग में उन्होंने प्राण त्याग दिया था। वास्तव में यह बात थोड़े हेर-फेर के साथ लिखी गई प्रतीत होती है । मृग का दूसरा नाम हिरन भी होता है। संभव है कि उन्हें अपने पितामह हिरण्य (नाभि के भाई) से विशेष स्नेह रहा हो और इसी कारण भरत का आना-जाना विशेष रूप से हिरण्यवान से रहा हो जो हिरण्य वर्ष के अधिपति थे। इन्हीं हिरण्य के नाम के कारण भाष्यकारों ने हिरण्य का नाम मृग लिखकर उससे स्नेह करा दिया हो तो क्या आश्चर्य है ? मृग के वियोग में भरत ने प्राण त्याग दिया और बाद में वह मृग योनि में जन्म लिया, इसका क्या प्रमाण है ? यह सब बात एक ऐसे सन्देह का सृजन करती हैं जिसका कोई पुष्ट समाधान नहीं होता ।

यह जड़ भरत बड़े प्रतापी थे। इनकी महान प्रतिभा के कारण इन्हीं के नाम से स्वायंभुव के वंशधरों को मनुर्भरत वंश कहा जाने लगा, जो आज तक प्रचलित है । 'भरत के पुत्र मनु सुमति, और पुत्र इन्द्रधुम्न थे, उसके परमेष्टि और परमेष्टि का पुत्र प्रतिहार था । प्रतिहार के प्रतिहर्ता, उसके भुव, उससे उदग्रीम्य और उदग्रीव से प्रस्तार नामक पुत्र हुआ । प्रस्तार का पुत्र पृथु था जो इस वंश का पंद्रहवां प्रजापति हुआ । पृथ के नक्त, उसके गय और गय के नर नामक पुत्र हुआ । नर के विराट, उसके महावीर्य, उसके धीमान और बीमान के महान नाम का पुत्र पैदा हुआ। महान के पुत्र का नाम मनुष्य था जो इस वंश का तेईसवाँ प्रजापति हुआ । सम्भव है कि मनुष्य के नाम से ही मनुष्य श्रेणी को मनुष्य कहा जाने लगा । मनुष्य का पुत्र त्वष्टा, उसके विराज, उसके रज, उसके विपग्ज्योति नाम का पुत्र पैदा हुआ जो इस वंश का सत्ताईसवाँ प्रजापति हुआ । विपग्ज्योति के पुत्र का नाम रेवत था जो रेवत मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इन्हीं के नाम से रैवत मन्वन्तरि काल की गणना की जाती है । स्वत मनु बाद सात पीढ़ियों तक का इस वंश का पता चलता है, किन्तु उन सात पीढ़ियों के नाम का पता नहीं चलता । संभव है कि २९ से ३५ तक जो सात पीढ़ियाँ थीं वह कोई प्रभावशाली शासक न थे । इस प्रकार मनुर्भरत वंश की प्रियव्रत शाखा में ५ मनु और ३५ प्रजापति हुये ।

मनुर्भरत वंश की उत्तानपाद शाखा - स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र उत्तानपाद थे जिनसे इस वंश की दूसरी शाखा चली। इस शाखा तथा वंश में चाक्षुप मनु सहित पैतालिस प्रजापति तथा राजा हुये । (देखें हरिवंश पुराण) इस वंश का वंश वृक्ष तालिका २ से स्पष्ट है ।

इस वंश की ६७ पीढ़ियों का भोग काल लगभग १८७६ वर्षों का माना गया है जिसे सतयुग (Heroic Age) कहते हैं । सतयुग में बड़ी-बड़ी राजनैतिक तथा सांस्कृतिक घटनायें हुई जो आगे लिखी गई हैं । इस वंश में अत्यराति जानन्त पति महान चक्रवर्ती सम्राट हुआ । (ऐत- रेय ब्राह्मण - ८ / ४ / १) । इनकी राज्य सीमा पश्चिम में आर्द्रपुर व आर्द्र सागर एवं युवन सागर तक फैली थी ।

उत्तानपाद के दो पुत्र थे, जिनका नाम ध्रुव तथा उत्तम था । उत्तम के वंशज उत्तम जाई पठान कहलाये जो हिन्दू पठान अफगानिस्तान में हैं । ध्रुव के पुत्र श्लिष्ट थे जिनका एक नाम भव्य भी था । श्लिष्ट के पाँच पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः ऋभु, रिपु ंजय, वीर, वृकल तथा वृक थे । प्रजापति ऋभु स्वायंभुव मनु से पाँचवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये । ऋभु के बाद लग- भगं तीस पीढ़ी तक ऐसा लगता है कि इस वंश में कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं पैदा हुआ क्योंकि उनके नामों का स्पष्ट रूप से पता नहीं चलता । इन नामों में कहीं कुछ और कहीं कुछ नाम प्राप्त होते हैं जिनको प्रमाणित करने में कहीं कहीं कल्पना का सहारा लेना पड़ सकता है। पीढ़ी में चाक्षुष मनु हुए, जिनके नाम से चाक्षुष मन्वन्तरि काल की गणना होती है । (देखें इसलिये यह बीच के नाम छोड़ दिये हैं। ऋभु की ३० पीढ़ी बाद अर्थात स्वायंभुव मनु ३६ ऋग्वेद १०/६०, जैमिनीय ब्राह्मण १/१४६, विष्णु पु०, हरिवंश, महाभारत ५८ / १६-१३६) । चाक्षुष मनु के ६ पुत्र बड़े प्रतापी हुये, इनकी यश पताका उस समय से लेकर अब तक विश्व मैं फहरा रही है । चाक्षुष मनु के छः पुत्रों के नाम क्रमशः अत्यराति जानन्त पति, अभिमन्यु, उर, 'पुर, तपोरत और सुम्न थे, जिनका अलग-अलग वितरण इस प्रकार है ।
 चाक्षुप मनु का ज्येष्ठ पुत्र था। यह चक्रवर्ती सम्राट था (ऐतरेय ब्राह्मण ८/४/१) । इसको राज्य सीमा पश्चिम में आर्द्रपुर व आद्र सागर एवं युवन सागर (यूनान) तक फैली हुई थी (देखें पशिया का इतिहास प्रथम खण्ड) पर्शिया का पूर्वी भाग जिसे अब सत्यगिदी कहा जाता है, उस समय सत्य लोक के नाम से विख्यात था। उसी के पास सुमेरू के निकट वैकुण्ठ धाम था, यह वही वैकुण्ठ है जिसका वर्णन पुरातन ग्रंथों में रूपक के साथ भरा पड़ा है । यही वैकुण्ठ नामक नगर सम्राट अत्यराति की राजधानी थी । देमावन्द एलबुर्ज पर प्राचीन बैकुण्ठ धाम आजकल इरानियन पैराडाइज के नाम से प्रसिद्ध है । ( पैराडाइज का अर्थ वैकुण्ठ या स्वर्ग है, इसका पूर्ण विवरण जानने के लिये देखें पर्शिया का इतिहास भाग प्रथम पृ० ११७, १२३ और १७३) । अत्यराति का नाम सम्भवतः अराति भी था । इन्हीं अत्यराति या अराति के वंशजों से अराट जाति बनी, जो उस प्रदेश में अब भी बड़ी संख्या में पाई जाती है । यह अराट जाति अब इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया है। जिस प्रदेश में अराट जाति रहती है उस देश को आरमेनिया देश कहा जाता है। ईरान का अराट पर्वत भी अराति या अत्यराति के नाम पर है । अत्यराति के ५ भाई और उनका भतीजा अंगिरा, यह छहो विश्व के महान विजे- ताओं में गिने जाते हैं । सम्राट अत्यराति महान विजेता और प्रतापी था। यह एक बड़े भू- भाग का अधिपति था। इन महान विशेषताओं के कारण इसे जानन्तपति की उपाधि मिली थी । अत्यराति इस वंश की तीसवीं पीढ़ी का पुरुष था । 9

अभिमन्यु चाक्षुष मनु का द्वितीय पुत्र था, यह अत्यराति से छोटा और उर से ज्येष्ठ था । यह अभिमन्यु भी अत्यराति जानन्वपति की तरह महान योद्धा तथा विजेता था । इसने अर्जनम नामक स्थान में एक विशाल दुर्ग निर्माण कराया था, जो अभिमन्यु दुर्ग के नाम से बहुत विख्यात हुआ । अभिमन्यु की राजधानी सुपा नगर में थी।

सुपा विश्व की प्राचीनतम नगरी थी, जो सुमेर प्रान्त में अंर्बुद ( पशिया की खाड़ी) पर अब तक है। आचिलोजी विभाग द्वारा सुपा की खुदाई कुछ दिन पहले हुई थी, जिसमें उन्हें लगभग आठ हजार वर्ष पहले की वस्तुयें प्राप्त हुई हैं । यह स्थान चक्रवर्ती सम्राट महाराज अत्यराति के भाई नन्यु-अभिमन्यु ग्रीक ने अर्जनम में अभिमन्यु दुर्ग का निर्माण कराया था । जहाँ से वह ट्राय (Troy ) के युद्ध में सेना सहित आकर सम्मिलित हुआ था । यही अभिमन्यु दुर्ग बाद मेंमन्यु पुरी कहलाया और बाद में मन्यु पुरी का नाम सुपा हो गया। सुपा नगर के बारे में पशिया के इतिहास प्रथम भाग में लिखा है कि

Susa or shush or the City of Memnon, the Encient capital of Elam and the Oldest Known site in the world, (History of Peria vol I. Page 59) 1

यह अभिमन्यु महान योद्धा तथा विजेता था। ट्राय के युद्ध में इसकी वीरता का वर्णन "ओडेसी" (Odyssey) ने बड़े महत्वपूर्ण शब्दों में किया है, जिसका एक छोटा सा उदाहरण यहाँ पर देते हैं-

To Troy No Hero came of Nobler Line.

or if of Nobler Memnon it was Thine-Odyssey (History of Persia

vol. I page 55)

इन उपरोक्त उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि अत्यराति जानन्तपति के समान ही अभिमन्यु भी महान योद्धा और विजेता था । अभिमन्यु के दो पुत्र थे जिनका पता कई प्रमाणित लेखों से मिलता है। इन पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र मन्यु था और कनिष्ठ पुत्र केशी था । मन्यु और केशी भी अपने पिता की तरह विजेता और योद्धा थे । मन्यु के वंशज मन्यु जाति के नाम से विख्यात हये और यह लोग अब भी उसी नाम से समस्त ग्रीक देश में फैले हुये हैं ।

मन्यु के छोटे भाई केशी के वंशधर केशीवर जाति के नाम से विख्यात हुये, जिनका मुख्य निवास पर्शिया देश है। बहुत समय बीत जाने के उपरान्त भी यह मन्यु जाति और केशीवर जाति अपने मूल गोत्र से अब भी प्रसिद्ध है। यह बात और है कि इन जातियों की अनेकों शाखायें हो गई जिनका विवरण पर्णिया के इतिहास में देखा जा सकता है।

उर जो चाक्षुष मनु का तीसरा पुत्र था, यह भी अपने दोनों भाइयों अत्यराति जानन्त- प्रति तथा अभिमन्यु की तरह महान विजेता तथा योद्धा था । उर का साम्राज्य अपने अन्य भाइयों की अपेक्षा अधिक विस्तृत था । यह उर देश का शासक या (उर देश को डर लोक, उरजन, करतार (अब अरमुज्द) सुपा उर ( चाल्डिया) जो फारम और अरव का मध्यवर्ती प्रदेश है कहा जाता था । उरलोक या करतार के निवासियों ने अन्य विषयों के साथ-साथ सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में अच्छी उन्नति कर लिया था । उर के वंशजों को पहले उन जातिया उरपियन कहा जाता था । सम्भव है इन्हीं के वंशज जो उरपियन कहलाते थे वहाँ से निकल कर अन्य स्थानों पर जा बसे और कालान्तर में उरपियन से योरोपियन कहलाने लगे। ऐसा भी सम्भव है कि उन्हीं उरपियन या योरोपियन के रहने के नये स्थान का नाम वर्तमान युरोप पड़ गया हो । करतार के रहने वाले करतार वंश के कहे गये, जिनमें ब्रह्मा भी सम्मि लित हैं ।

डर के राज्य उर लोक की स्त्रियों को उर्वशी कहा जाता था । चन्द्रवंशी बुध के पुत्र पुरूरवा का व्याह उर्वशी से हुआ था जो कुछ दिन बाद पुरूरवा को छोड़कर उर देश चली गई थी (देखें भागवत पु० चन्द्रवंश का वृतान्त ) । इन्द्र की सभा में अनेकों उर्वशी नर्तकियां थीं जिनका वर्णन पुरातन लेखों में भरा पड़ा है। कौरवों पान्डवों के माना शल्य उर देश का था । जब कर्ण महाभारत युद्ध में सेनापति बना तो उसने शल्य को अपना सारथी बनाना चाहा । पहले तो शल्य ने अपना अपमान समझा और सारथी बनने के लिये तैयार नहीं हुआ किन्तु जब कर्ण ने शल्य को फटकारते समय यह कहा कि तुम कहाँ के इतने सम्मानित व्यक्ति हो ? क्योंकि तुम्हारे यहाँ स्त्रियों में अन्य पुरुषों का विचार नहीं है । वह नर्तकियाँ हैं और जहाँ-तहाँ नाचती फिरती हैं । नंगी होकर सबके सामने नहाती हैं, रीति रिवाज तथा पर्दे का कोई भेद नहीं मानतीं। जिससे मन चाहा विवाह कर लेती हैं और कुछ समय बाद उस पुरुष को छोड़कर अन्य के पास चली जाती हैं, तो ऐसे देश के निवासी तुम कहाँ के सम्माननीय बन गये जो सारथी बनने में अपना अपमान समझ रहे हो। इन बातों से लज्जित होकर शल्य ने कर्ण का सारथी बनना . स्वीकार कर लिया (देखें महाभारत कर्ण प्रसंग ) |

कर्ण द्वारा वर्णित उर देश की प्रथायें आज युरोप की सभ्यता बनी हुई हैं । अतः यह मानना पड़ता है कि उर के वंशजों की सभ्यता तथा संस्कृति का प्रभाव आज भी यूरोप और युरोपियनों में पाई जाती है। उर के वंशज उर लोक तथा उरजन नामक स्थानों के निवासी थे जिसे अब उरमुज्द (Ormuzed) कहा जाता है । यह प्राचीन सुपा उर था जिसे चाल्डिया जाता । यह स्थान फारस और अरब का मध्यवर्ती प्रदेश है ।

उर के चार पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः इलावृट, वेविल, अंगिरा तथा अंग थे। जिनका अलग-अलग वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है-

इलावृट- यह उर का प्रथम पुत्र था। इलावृट के वंशज एलाम वंश के नाम से प्रसिद्ध हुये, यह प्राचीन एलाम (इलावर्त ही आज ईरान के नाम से विख्यात है । यह एलामवंश, ईरान, ईराक, सऊदी अरब तथा अन्य कई स्थानों में फैला हुआ है। इस वंश के बहुत से लोग अब इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिये हैं। कुछ यहूदी, कुछ क्रिश्चियन हैं । वेबिल - यह उर के दूसरे पुत्र थे, वेविल के वंशधरों की देविल जाति बनी। इसे वेविल

जाति के लोग वेदिल द्वारा स्थापित वेबीलोनिया देश के निवासी हैं। अंगिरा - उर के तृतीय पुत्र अंगिरा, अपने समय के महान विजेताओं में गिने जाते हैं। इनके सम्बन्ध में अनेकों लेख मिलते हैं जिससे अंगिरा के जीवन तथा कार्य-कलापों पर प्रकाश पड़ता है। (देखें विष्णु पुराण चाक्षुष मन्वन्तरि कथा प्रसंग, कुशद्वीप (अफ्रीका), कर्नल टाड का राजस्थान तथा हिस्ट्री आफ पर्शिया) । अंगिरा ने अपने बाहुबल से कुशद्वीप (अफ्रीका) जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। इनका मुख्य राज्य टर्की (तुको) था, और इनकी राजधानी अंगिरा नगर में थो, जो अब अंकारा के नाम से विख्यात है । यह अंकारा आज तक टर्की की राजधानी है, और इनके वंशज जो अंगिरा जाति के नाम से प्रसिद्ध हुये, अब भी वहाँ पर विशेष संख्या में पाये जाते हैं । यह बात और है कि अंगिरा जाति के लोग अब इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिए हैं ।

अंगिरा के छोटे भाई अंग, जो उर के चौथे पुत्र थे, उनके वंशजों की एक अलग शाखा चली, जो प्रजापति के नाम से पुरातन ग्रन्थों में उल्लिखित हैं । वास्तव में 'प्रजापति' नाम एक पदवी या उपाधि है । जैसे राजा का पद एक शासक के रूप में जाना जाता है, उसी प्रकार राजा के स्थान पर पहले प्रजापति हुआ करते थे, और राजा नाम की उपाधि उस समय तक प्रचलित नहीं थी । अंग के बाद तीसरी पीढ़ी से प्रजापति नाम के स्थान पर राजा की उपाधि आरम्भ होती है । जो आज तक प्रचलित है ।

प्रजापति अंग के पुत्र वेन प्रजापति हुये, और वेन का पुत्र पृथुवेन हुआ । पृथुवेन अपने पिता वेन के बाद जब सिहासनासीन हुआ तो उसने प्राचीन प्रथाओं में बहुत बड़ा हेर फेर करके एक नये युग का निर्माण किया । सर्व प्रथम जब वह गद्दी पर बैठा तो प्रजापति के स्थान पर राजा की पदवी धारण किया। अपने पिता वेन के नाम पर एक नये वंश वेनतेय की स्थापना किया और वैनतेय कहाया । पृथुवेन ने अपने को प्रजापति के स्थान पर राजा घोषित करके राज्य सेवा परिच्छंद धारण किया। राज्य व्यवस्था का नया ढङ्ग चलाया, भूमि का अंकीकरण ( नम्बर) किया । भूमि वितरण व्यवस्था लागू किया, भूमिकर की दरें घोषित कराया, जंगलों को जलाकर भूमि को कृषि योग्य बनाया, और कृषि कार्य आरम्भ किया। इस कारण से पृथु के नाम पर भूमि को पृथ्वी कहा जाने लगा । पृथुवेन के सम्बन्ध में अनेकों उल्लेख पाये जाते हैं। (देखें स्कन्द पुराण, शतपथ ब्राह्मण, भागवत पुराण, पर्शिया का इतिहास तथा हिस्ट्री आफ ईरान आदि) ।

पृथुवेन के समय तक प्राग वैदिककाल माना जाता है अर्थात् उस समय तक वेदों (ऋग्वेद) का प्रारम्भ नहीं हुआ था । अनेक पुरातन लेखों के अनुसार पृथुवेन ही सबसे पहला वेदपि हुआ और उसने सर्वप्रथम वेद की पहली ऋचा बनाई। ऐसा पुराणों से प्रमाणित होता है । अतः इसी समय से वेदोदयकाल (वेद का आरम्भ ) माना जाता है ।

पृथुवेन का पुत्र अन्तर्द्धान और अन्तर्शन का पुत्र हवन हुआ जो उत्तानपाद शाखा की ४२वीं पीढ़ी का पुरुष हविर्द्वानि का पुत्र प्राचीन बर्हपि और उसका पुत्र प्रचेतस हुआ । राजा प्रचेतम का प्रसिद्ध पुत्र दक्ष हुआ, जा इस वंश को ४५वीं पीढ़ी में था। राजा दक्ष इस वंश का अंतिम राजा था, क्योंकि दक्ष के बाद इस वंश का आगे पता नहीं चलता । अनेक पुराणों के उल्लेखानुसार स्वायंभुव मनु से सतयुग का आरम्भ और राजा दक्ष के बाद सतयुग का अन्त माना जाता है । 
दक्ष से दक्षवंश चला। यह दक्षवंश कितनी पीढ़ियों तक चला इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु अनेक लेखों से यह संकेत मिलता है कि दक्ष को २२वी पीढ़ियाँ राज्यासीन रही हैं, क्योंकि दक्ष पुत्रियों का जिनसे विवाह हुआ यह सब एक पीढ़ी ने न होकर कई पीढ़ियों के पुरुष थे।

सर्वप्रथम ब्रह्मा के पुत्रों में से मरोचि का व्याह दक्ष पुत्र कला से होने का उल्लेख पाया जाता है । दूसरा प्रमाण मरोचि पुन कश्यप जो सूर्य के पिता थे, उनमें दक्ष की तरह पुत्रियों का ब्याह हुआ। उन तेरह पुत्रियों के नाम अदिति, दिति, मुसा, इड़ा, मुनी, क्रोधवशा, ताश्रा, सुरभी शरमा और तिमि थे। तीसरा प्रमाणक के पो अथवा सूर्य पुत्र यम की भी दो शादियां दक्ष पुत्रियों से हुई। जिनके नाम साध्य और बसु थे। चोथा प्रमाण यम के पौत्र व शिव से दक्ष पुत्री सती से विवाह होने का मिलता है। इन्हीं रूद्र शिव की पत्नी जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह कर लिया तो रुद्र क्रोधित होकर दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर दिया और साथ ही दक्ष का वंश भी नष्ट कर दिया। इस प्रकार दक्ष का वंश समाप्त हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि नाम का राजा जब राज्यासीन हुआ तब से उनके वंशज दक्ष की उपाधि से विभूषित हुये । उनके नाम चाहे कुछ भी रहे हों किन्तु प्रथम दक्ष के बाद के उनके वंशधर दक्ष ही कहलाये। यह दक्ष वंश स्वायंभुव मनु के पुत्र उत्तानपाद शाखा का अन्तिम राज्य वंश प्रतीत होता है, क्योंकि इसके आगे इस वंश का कोई लेख नहीं मिलता । हाँ, इस बात का संकेत पुराणों में अवश्य मिलते हैं कि दक्ष सतयुग के अन्त में हुआ, क्योंकि बाद में त्रेतायुग का आरम्भ हो गया था।

चाक्षुष मनु का चौथा पुत्र 'पुर' था जो उर का छोटा भाई था। यह पुर भी अपने भाइयों की तरह महान विजेता तथा योद्धा था। पुर के वंशज पोरस जाति के नाम से विख्यात हुये, और इनका प्रमुख राज्य पर्शिया देश था, जहाँ पोरस जाति के लोगों का मूल निवास था। इसके सम्बन्ध में पूर्ण विवरण पर्शिया के इतिहास से प्राप्त होता है ।

तपोरत, चाक्षुषमनु का पाँचवाँ पुत्र था। तपोरत की गणना भी अपने भाइयों की तरह विजेताओं में होती है । तपोरत के पुत्र का नाम तपसी था। इन तपोरत अथवा तपती के वंश- घरों से तपोरिया जाति और तपसी जाति बनी । तपसी का पुत्र विकुन्ठा का पुत्र कुष्ठ था । वैकुण्ठ ने अपने नाम से वैकुण्ठ नामक नगर की स्थापना किया। यह वैकुण्ठ आज भी ईरानियन पैराडाइज के नाम से प्रसिद्ध है। अरब में उसे वल्ख कहते हैं, जिसे हिन्दू पुरातन ग्रन्थ में स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ कहा गया है यह वही स्थान है। पुराणों की मान्यता है कि मरने के बाद उत्तम मनुष्यों की आत्मा स्वर्ग या वैकुण्ठ में जाती है। यह स्थान मनुष्य को तभी प्राप्त होता है जब उसने तप किया हो और तपसी रहा हो। कुछ भी हो, शब्द विन्यास का लाभ भारत के कुछ ब्राह्मणों ने बहुत पाया ।

उपरोक्त बातों से यह प्रतीत होता है कि वैकुण्ठ में जो तपसो जाति के लोग रहते थे, उनसे यह धारणा बनी प्रतीत होती है, और इसी आधार पर कल्पना का सहारा लेकर वैकुण्ठ सम्बन्धी लेख लिखे गये प्रतीत होते हैं । वैकुण्ठ या स्वर्ग प्राप्त करने के लिये दान को महत्वपूर्ण बताया गया है और वह दान केवल ब्राह्मण को देने का ही विधान बनाया गया, चाहे वह ब्राह्मण विद्वान हो अथवा मुर्ख हो, चरित्रवान हो अथवा दुश्चरित्र हो, धनी हो अथवा निर्धन हो, उप- देशक हो अथवा मौन धारण करने वाला हो, सन्त प्रवृति का हो अथवा ढोंगी हो, कैसा भी ब्राह्मण क्यों न हो उसे दान देकर वैकुण्ठ जाने का लेख और प्रचार हमारे पुरातन ग्रन्थों में भरा पड़ा है । तपोरत के वंशधर जो तपोरिया तपसी जाति के नाम से विख्यात हुये अब मजादिरन जाति के नाम से जाने जाते हैं । यह लोग अब कुछ तो ईशा मसीह के अनुयायी हैं और इनकी एक विशेष संख्या इस्लान धर्म ग्रहण कर लिया है ।

नहीं है । चाक्षुण मनु का छठा पुत्र 'सुद्यम्न' था किन्तु उसके विषय में कोई विवरण प्राप्त

इस प्रकार ईरान के यह छः अमर उपास्यदेव महाविक्रम महाराज अत्यराति, अभिमन्यु, उर, पुर, तपोरत यह पाँपों भाई तथा छके उर पुत्र अंगिरा थे । इन छहों विजाताओं का वर्णन ईरान के प्राचीन इतिहास में पढ़ने को मिलता है । इन्हें (Six Immortal Holy Ones ) सिक्स इम्मोरटल होली वन्स अर्थात “छः " अमर उपास्य देव कहा गया है । इनके भीषण आक्रमणों से दलित होकर ईरानो उन्हें अहितदेव, अहिरमन अथवा शैतान कहने लगे थे । इनका वर्णन पर्शिया के इतिहास प्रथम भाग के पृष्ठ १०५, १११, ११२, ११३ और ११८ आदि में लिखा गया है । इन छहों विजेताओं का राज्यकाल पाश्चात्य इतिहासकारों ने ईसा पूर्व २८०० और ईसा पूर्व २२५० वर्ष के लगभग माना है । कुछ पुराणों ने अहिरमण को रावण का भाई मानकर एक पाखण्ड कथा गढ़ डाला है ।

इन मनुर्भरतों के ईरान, एशिया माइनर, ग्रीक, सीरिया, वेवीलोनिया और अंकारा ( अफ्रीका) आदि को विजय करने के अनेकों प्रमाण मिलते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह लोग उस समय से ही इन देशों में राजनैतिक उपासना के केन्द्र बिन्दु बने ।

उत्तान पाद शाखा के छहों विजेताओं में अंगिरा सब के अन्त में गिने जाते हैं । अंगिरा

के भाइयों के सम्बन्ध में जैसा लिखा जा चुका है कि इलावृट ने ईरान ( इलावर्त) राजधानी

बनाया, और एलाम वंश की प्रतिष्ठा किया। वे विल ने वेविलोनिया की प्रतिष्ठा करके वेविल-

वंश चलाया । अंगिरा ने अंकारा राज्य (टर्की) की स्थापना करके अंगिरावंश चलाया तथा अंग

से एक नई शाखा चली, जिसे प्रसिद्ध दक्षवंश तक चलने का प्रमाण प्राप्त होता है । इसका संकेत

पुरातन ग्रन्थों से मिलता है । इसी करतार वंश में विष्णु तथा ब्रह्मादि हुये ।

प्रजापति उर के वंशजों का एक राज्य करतार नामक स्थान में भी था, जैसा कि उर

के लेख में वर्णित है । करतार के रहने वालों को स्थान के नाम पर करतार भी कहा जाने लगा था । कालान्तर में इसी करतार नामक स्थान में रहने के कारण ब्रह्मा का एक नाम करतार या कर्तार भी पड़ गया। इससे सम्बन्धित लेख ब्रह्मा की उत्पत्ति के विषय में आगे लिखा जायगा । पुराणों के अनुसार यह वह समय था जब सतयुग समाप्त हो रहा था और त्रेतायुग का आरम्भ हो रहा था ।

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