विश्व की प्राचीनतम आदिम जातियाँ

विश्व की प्राचीनतम आदिम जातियाँ -स्वायंभुव मनु के लेख में आप पढ़ेंगे कि मनुभव वंश सबसे प्राचीन राज वंश है जो स्वायंभुव मनु से प्रारम्भ होता है यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि आखिर स्वायंभुव मनु की उत्पत्ति किससे और इनके पूर्वज तथा मूल पुरुष कौन थे हिन्दू धर्म ग्रन्थों को अध्ययन करने से केवल एक ही बात हर लेखों से प्राप्त होती है उन लेखों के अनुसार स्वायंभुव मनु किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं हुये वरन वह स्वयं ही उत्पन्न गये और स्वयं उत्पन्न होने के कारण उन्हें स्वायंभुव कहा गया यद्यपि बिना पुरुष तथा स्त्री के संसर्ग के किसी का उत्पन्न होना एक असम्भव बात है फिर भी हम आज तक आँख तथा मष्तिस्क बन्द करके यही बात मानते चले आये हैं क्योंकि इसके अतिरिक्त हमारे पास और कोई चारा न था किन्तु आज का विद्वाI जो अन्ध विश्वासी नहीं है यह मानने के लिये कदापि तैयार नहीं होगा कि बिना पुरुष और स्त्री के कैसे कोई स्वयं पैदा हो जायगा, अतः यह मानना ही पड़ेगा कि स्वायंभुव के पिता भी थे और माता भी तथा वह भी ऐसे ही पैदा हुये थे जैसा विश्व का हर व्यक्ति पैदा होता है यह बात और है कि उनके माता पिता का नाम हम नहीं जानते किन्तु उनके पूर्वज कौन थे इस विषय में मैं अपना खोज पूर्ण विचार व्यक्त करना चाहता हूँ ।

उपरोक्त वादों का गम्भीरता से विचार करने पर जो तथ्य हमें प्राप्त होता है वह यह हैं कि स्वायंभुव मनु के पहले का वांशिक इतिहास अतीत के अन्धकार में छिपा है उनके पूर्वज अवश्य थे चाहे वह जंगली अर्ध सभ्य सम्य अथवा किसी भी आदिम अवस्था में थे जिसके कारण उनके इतिहास का ठीक पता नहीं चल पाता ऐसा प्रतीत होता है कि स्वायंभुव के पहले पीढ़ियाँ इतनी सभ्य नहीं थीं जिनना कि स्वायंभुव मनु तथा उनके बाद की पीढ़ियाँ सभ्य हुईं जिससे मनु के बाद की पीढ़ियों का पता चला । मनु से पहले प्रागैतिहासिक काल था और मनु से ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है ।

यह तो निर्विवाद सत्य है कि आदि कालीन मानव इतना सभ्य नहीं था जितना बाद में हुआ और शनैः शनैः समयान्तर में मानव सभ्य और सुशिक्षित होता गया और आज की स्थिति तक पहुँच गया किन्तु जब हम आज की कुछ आदिम जातियों का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि स्थान तथा भौगोलिक स्थिति और परिस्थितियों ने ही मानव के सभ्य तथा असभ्य जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है जैसा कि निम्न लेख से पता चलता है-

विद्वानों ने संसार के मनुष्यों का वर्गीकरण करने की अनेक चेष्टायें की है किन्तु विभिन्न देशों के निवासियों को पृथक-पृथक श्रेणियों में बाँट कर स्पष्ट रूप से उनकी पारस्परिक भिन्नता बतलाने का प्रयत्न आज तक पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सका मानव सृष्टि के क्षेत्र में विभाजक रेखायें खींच कर उनकी विभिन्न क्यारियों की ठीक-ठीक सीमा निर्धारित करना एक प्रकार से असम्भव है मानव विज्ञान विशारदों ने इस विषय पर सैकड़ों ग्रंथ लिख डाले हैं जिनकी उप- योगिता या अनउपयोगिता का विवेचन हमारा विषय नहीं है सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान श्री सी० जी० सेलिग्मान ने मानव जातियों का जो वर्गीकरण हमारे सामने उपस्थित किया है वह हमें यथार्थता के अधिक निकट प्रतीत होता है और व्यावहारिक दृष्टि से हम उसका कुछ उल्लेख यहां कर रहे हैं। श्री सी० जी० सेलिग्मान के उल्लेखानुसार संसार के मनुष्य यः मूल जातियों में बँटे हुये हैं-

(१) नाडिक

(२) अल्पाइन

(३) मेडिटरेनियन

(६) आस्ट्रेलियन

(४) मंगोल (५) नीग्रो और वर्ण भेद की दृष्टि से उपर्युक्त नार्डिक अल्पाइन और मेडिटरेनियन जातियों "काके- शियन' (CAUCASIAN ) या श्वेत मनुष्यों की श्रेणी में और मंगोल जाति को पीले मनुष्यों के वर्ग में गिना जाता है इसी तरह काले मनुष्यों में नीग्रो तथा गेहयें रंग के या अर्थ कृष्ण काय मनुष्यों में आस्ट्रेलियन जातियों की गणना होती है इन सभी जातियों में न्यूनाधिक रूप से आकृति शारीरिक गठन तथा स्वभाव की भिन्नता पाई जाती है।

सर्वप्रथम हम काकेशियन या श्वेतांगों की कोटि में आने वाली जातियों पर दृष्टिपात करते हैं मानव शास्त्रियों ने मनुष्य जाति को रंगों के हिसाब से पांच भागों में विभक्त किया है जिनमें गोरे, पीले, काले, बादामी और लाल रंग की जातियाँ सम्मिलित हैं इनमें गोरी जाति प्रधान है गोरी जातियों में मित्र, असीरिया, बेबीलोनिया, फिनिसियाँ, फारस, यूनान, इटली, और हिन्दू जातियों की गणना होती है नाडिक जातियाँ भी गौरांग होती हैं नाडिक के अन्तर्गत उत्तरी यूरोप के निवासी स्कैन्डेनेवियन, फ्लेमिंग्स, उच, बहुतेरे जर्मनी और कुछ रूसी लोग आते हैं अधिकांश अंग्र ेजों और स्काटलैंड वासियों की भी इसी में गणना की जा सकती है यद्यपि ब्रिटिश द्वीपों के प्राचीन निवासी मेडिटेरनियन जाति के वंशज माने जाते हैं अल्पाइन जाति में युरोपीय अल्पाइन और एशियाई आर्मेनाइट शाखायें सम्मिलित हैं युरोपीय अल्पाइन वर्ग में - स्विस, दक्षिणी जर्मन, स्लाव, फेन्च और उत्तरी इटालियन आते हैं यह शाखा एशिया महाद्वीप तक फैली है और इरानी-वाजिक तथा पामीर के पहाड़ी लोगों में से एक विशेष वर्ग के मनुष्यों की इस श्रेणी में गणना होती है जो अल्पाइन जाति के स्विस प्रतिनिधियों से पूर्ण सादृष्य रखते हैं ।

आप देखते हैं कि स्वायंभुव मनु के वंशजों में ही विजेताओं की भौगोलिक स्थितियाँ उन्हीं स्थानों का संकेत करती हैं जहाँ पर गौरांग नार्डिक लोग काकेशियन के नाम से निवास करते हैं मनु वंश के निवास स्थान तथा उनकी भौगोलिक परिस्थितियों से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि स्वायंभुव मनु इसी नार्डिक जाति के इरानी शाला के वंशघर थे। आर्मेनाइट या पश्चिमी एशियाई शाखा में प्राचीन हित्ती जाति के लोग भी आते थे आज कल आर्मीनियाँ लेवान्ड, मेसोपोटामियाँ और दक्षिणी अरब के निवासियों को इसी शाखा के अन्तर्गत समझा जाता है जिसकी कुछ विशेषदायें बहुतेरे यहूदियों तथा अरव लोगों में प्रकट हुई है ।

मेडिटरेनियन जाति में भूमध्य सागर के निवासी सेमाइट अरब, उत्तरी अफ्रीका के लोग उत्तरी माइट या लीबियावासी बर्बर, सहारा प्रदेश के तुरंग और कुलानी, जिनमें अधिक निग्रो रक्त नहीं है, सम्मिलित है। दक्षिणी या पूर्वी हमाइट शाखाओं में मिश्री, वेजा, अर्ध बर्बर हब्शी और सुलामी तथा गाल्लम जातियाँ आती हैं दक्षिणी भारत के तामिल तथा उनसे मिलते जुलते - वर्ण वाले भी मेडिटरेनियन जाति के अन्तर्गत आते हैं या नहीं, इसमें सन्देह है। हाँ भारतवर्ष 'की अनेक उच्च वर्ण की जातियों में और विशेषतया काश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मालवा, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, पश्चिमी तथा उत्तरी बिहार मध्य भारत का कुछ भाग तथा प्राचीन गुजरात के गौर वर्ण और उन्नत नाशिका वाले मनुष्यों में स्पष्ट तथा काकेशियन रक्त की प्रधानता है यद्यपि उनमें अधिकांशतः मिश्रित रक्त भी है - ( २ ) दूसरा नम्बर पीले मनुष्यों का आता है जो मंगोल जाति के प्रतिनिधि माने जाते हैं यह जाति एशिया महाद्वीप के पूर्व में पैस्फिक महासागर तक फैली हुई है यह जाति आदि काल में काफी पर्यटनशील रही है इस कारण इसका विस्तार सबसे अधिक पाया जाता है मंगोलिया, मंचूरिया, पूर्वीसाइवेरिया, तुर्किस्तान, तिब्बत, चीन, वर्मा, इन्डो-चीन मलय- प्रदेश तथा पूर्वी द्वीप समूहों के निवासी मंगोल जाति के समझे जाते हैं यद्यपि उनके कतिपय समुदायों में पारस्परिक भिन्नता के चिह्न अधिक स्पष्ट हैं फिर भी वे सभी एक ही वर्ग के हैं मंगोलों का रंग हल्का पीला या भूरापन लिये हुये पीला होता है उनकी आंखें भूरी, छोटी या साधारण तथा गहरी भूरी बाल मोटे और खड़े तथा कुछ घुमावदार दाढ़ी मूंछ बहुत कम, सिर गोल, जबड़ा एवं चेहरा चिपटा होता है। लम्बाई औसत ५ फुट ४ इंच से ५ फुट १० इंच तक होती है मंगोल जाति तीन श्रेणियों में विभाजित मानी जाती है- (१) दक्षिणी (२) उत्तरी तथा (३) समुद्री दक्षिणी मंगोलों में तिब्बत, हिमालय के दक्षिणी पठार, चीन तथा इन्डो-चीन से लेकर सुदूर दक्षिण में जल डमरू मध्य तक रहने वालों की गणना होती है इनका कद नाटा होता है उत्तरी मंगोल विशेष- तया साइबेरिया में, जापान से लाप प्रदेश तक और दक्षिण में चीन की बड़ी दीवाल तथा उत्तरी तिब्बत तक फैले हुये हैं । इतना ही नहीं, तुर्की तथा फिनिश जातियों के मनुष्यों में भी मंगोल रक्त का मिश्रण पाया जाता है। आस्तियाक तोगल और जापानी तथा कोरियावासी भी मंगोल ही हैं । समुद्री मंगोलों का विस्तार इन्डोनेशिया ( जिसमें फिलीपाइन द्वीप समूह सम्मिलित हैं) फारमोसा निकोबार और सुदूर मेडागास्कर द्वीप तक पाया जाता है। मंगोल जातियों में इनका कद सबसे नाटा होता है। रंग अन्य मंगोलों की अपेक्षा गहरा होता है जिसे रक्तिम भूरा कह सकते हैं । समुद्री मंगोलों और आसाम प्रान्त की कुछ जातियों के मनुष्यों में शारीरिक तथा सांस्कृतिक समानता के लक्षण पाये जाते हैं। एक बात जो याद रखने की है कि मंगोलों ने बेयरिंग डमरू मध्य से होकर पार्श्ववर्ती द्वीपों को पार करते हुये पैस्फिक महा सागर के उद्धार अमेरिका में भी अपनी बस्तियाँ बना रखी हैं।

तीसरा नम्बर नीग्रो जाति के काले मनुष्यों का है। नीग्रो जाति की दो बड़ी शाखायें हैं- ( १ ) अफ्रीकन या नीग्रो तथा (२) समुद्री या मेलानेशियन । इन दोनों से संबद्ध अनेक छोटे कद वाली अर्थ नीग्रो जंगली जातियाँ हैं जो शारीरिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अपनी पड़ोसी जा ियों से पिछड़े हुये माने जाते हैं । बौने या 'नीग्रितों' जिनके अफ्रीकन प्रतिनिधि प्राय: नीग्रिटों कहलाते हैं—इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। सहारा मरुभूमि का दक्षिणी प्रदेश नीग्रो जाति की आवास भूमि है, जिसमें अधिकांश नाइलोस (Nilotes ) अर्ध हेमाइट और बन्टू भी (जो शुद्ध नी नहीं कहे जा सकते ) सम्मिलित हैं ।

समुद्री नीग्रो में सबसे शुद्ध रक्त वाले पापुआन जो आज-कल न्यूगिनि में निवास करते हैं सम्मिलित हैं। नीतिों या अर्थ नीग्रो प्रायः वीनी जातियों को ही कहा जाता है जिसमें अण्डमान द्वीपवासी, मलय प्रायः द्वीप के सेमांग, फिलीपाइन द्वीपों के ऐटा ( Aeta) और नीदर- लैन्ड न्यूगिनी की अविख्यात डेपिरो जातियाँ हैं । अक्का, वतवा आदिम जातियाँ पश्चिमी अफ्रीका में विषुवत रेखा के निकट निवास करती हैं जो कद में सबसे छोटे (लगभग ४ फीट) माने जाते हैं। बुशमैन भी इन्हीं से संबंधित लगते हैं। हाटेनटाट में बंटू और हैमेटिक के मिश्रण से उत्पन्न बुशमैनों को माना जाता है ।

अफ्रीका की आदिम जातियों के तीन भेद माने जाते हैं -- (१) नीग्रो अर्ध नीग्रो और पिगमी लोग जिनकी उपशाखा में बुशमैन, बतवा ओवांगो और अवका आदि हैं - ( २ ) इसमें हाटेनटाट जिनकी उपशाखा में नामा कुआ, क्रोव रकुआ और ग्रीकुआ आदि हैं - ( ३ ) इसमें बंटू जिसकी उपशाखा में जुलु, काफिर, वगूतो, बेचुवान, माकुआ, मतिवेले मानूगंजा बेचू वगेत्ये, बरुआ, वालुन्दा, वासवाहिली वान्यामवेशी, वालेगा बाहरी बजी फजी-ओवाम्पो, कांगो वतेके और दुवाल आदि जातियाँ आती है ।

इस तरह से हजारों आदिम जातियाँ आज पृथ्वी के विभिन्न भागों में बिखरी पसरी पड़ी हैं। विश्व के विद्वान मानव शास्त्रियों का स्पष्ट कथन है कि सर्वप्रथम मानव की उत्पत्ति भूमि रशिया है किन्तु मूल स्थान के बारे में अब भी मतभेद हैं। यद्यपि हिन्दू धर्म ग्रन्थ ही सबसे प्राचीन माने जाते हैं किन्तु उसमें लिखे हुये स्थान भारत में नहीं हैं और वह लेख ऐतिहासिक न होकर उन्हें पौराणिक रूप से दिया गया है। विश्व के ऐसे सभी लेखों का मिलान करने से तो मूल स्थान कैस्पियन सागर, कृष्ण सागर तथा अराल सागरों के सन्यास तथा ईसन के उत्तर पश्चिमो सिरे से दक्षिणी पूर्वी कोने तक और भारत के उत्तरी भाग में आदि कालीन मानवों की जन्म भूमि प्रमाणित होती है।

अपने आरम्भिक काल में मानव प्रकृति के बस में अधिक या जिससे उसकी उन्नति और विकास की गति धीमी रही। लगभग एक लाख वर्ष पहले मनुष्य का जीवन लगभग पशु जैसा था किन्तु ज्यों-ज्यों उसके ज्ञान की वृद्धि होती गई मानव उन्नति का मार्ग खुलता गया। विकास के साथ मानव ने सभ्यता का जो वाना पहना है उसके रंग रूप के परिवर्तन के साथ उनकी जटिल तायें भी बढ़ती गई हैं ।

मानव उत्पत्ति से लेकर लाखों वर्षों तक यदि मानवेत्तर शणियों का गहनतम अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि मानव पीढ़ियां निरन्तर रूप से आज तक चलती रही हैं। किन्तु जब आज का सभ्य मानव अपनी कुछ पीढ़ियों से पहले का इतिहास नहीं जानता तो आदिम लोग अपने मूल पुखों को कैसे याद रख सकते थे । स्पष्ट है कि एक ही पुरखे की सन्दानें देश-काल और परिस्थिति के अनुसार सभ्य तथा असभ्य कहते हुये आज की स्थिति तक पहुँचे हैं तो इन्हीं आदिम जातियों में से स्वायंभुव मनु और ब्रह्मा आदि हुये हैं जो देशकाल और परिस्थितिवश सभ्य हो गये जिनका इतिहास विश्व के पटल पर बिखरा पड़ा है और आपके सामने है। यह बात और हैं कि स्वायंभुव मनु के पहले की पीढ़ियों का ज्ञान हमें नहीं है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि स्वायंभुव मनु आदि अपने आप प्रकट हो गये। ऐसा समझना सरासर भ्रम और अन्ध- विश्वास है ।

संसार भर में यत्र-तत्र विखरी फैली आदिम जातियों के अनेक वर्ग तथा समुदाय हैं । जिन्हें विवारमय से यहाँ नहीं लिखा जा सका । आदिम जातियों के कुछ नाम यहाँ लिख रहे हैं-

एस्किमों— भूमण्डल के उत्तरो सीमान्त के निवासी जो बर्फ में ही अपना जीवन

बिताते हैं ।

लाप - युरोप के बर्फीले उत्तराखन्ड के निवासी । समूदी और आस्तिक - साइवेरिया के सूने हिम प्रदेश के निवासी

रेड इन्डियन-अमेरिका के आदिम निवासी । किरगीज और कज्जाक-मध्य एशिया के खानाबदोश चरवाहे ।

तिब्बती - दुनियाँ के छत के निवासी जो बुर बर्फीले स्थानों में रहते हैं ।

बद्द – मरुभूमि के खानाबदोश लुटेरे ।

जिप्सी दुनियाँ के प्रसिद्ध आवारे जो प्रायः अपना मकान एक स्थान पर नहीं बनाते । नीग्रो -- अफोका महाद्वीप के आदिम निवासी । पिगमी संसार के सबसे नाटे और बौने मनुष्य |

जुलू - दक्षिणी अफ्रीका के शुरमा । आस्ट्रेलियन - संसार के सबसे अधिक पिछड़े हुये लोग जो जंगलों में रहते हैं । पापुआन न्यूगिनी की एक दिलचस्प आदि जाति के प्रतिनिधि | 'पालीनेशियन और मेलानेशियन – प्रशान्त महासागर के द्वीप पुरंजों के आदिम निवासी ।

मावरी-यूजीलैन्ड के शुरवीर । । ध्यांक बोनियों के आदिम निवासी ।

फारमोसावासी-नरमुन्द्रों के शिकारी एक प्राचीन जंगली जाति । मलय, मांग, सकाई— मलय प्रायद्वीप के अर्ध सभ्य और असभ्य निवासी ।

वेद्दा – पाषाण युग का प्रतिनिधित्व करने वाशे लंका के आदिम निवासी । - गोंड़ - भारत की सबसे प्राचीन, जंगल में निवास करने वाली जाति ।

भीत-मध्य भारत और गुजरात के बनवासी । कोरवा — विन्ध्य प्रदेश के धनुर्धारी ।

संथाल और हो - छोटा नागपुर पठार के मुण्डा भाषा-भाषी वर्ग के प्रतिनिधि |

नागा, कूकी, गारों, अंगामी, जयन्ती, आओ-भारत के पूर्वोत्तरी सीमान्त (असम) के

निवासी ।

टोडा- दक्षिण भारत की एक लुा प्राय आदिम जाति । इन आदिम जातियों के अतिरिक्त और भी अनेक आदिम जातियाँ तथा उनकी शाखायें- उपशाखायें आदि हैं जिन्हें विस्तारमय से नहीं लिखा जा सका । उपरोक्त २५ जातियों की भी शाखायें और भेद हैं जिनको अनावश्यक समझ कर नहीं लिखा गया ।

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