अर्कवंशी (सूर्यवंशी ) क्षत्रिय

अर्कवंशी (सूर्यवंशी ) क्षत्रिय------>>>>



अर्कवंशी क्षत्रिय भारतवर्ष की एक प्राचीन क्षत्रिय जाति है और सूर्यवंशी क्षत्रिय परम्परा का एक अभिन्न अंग है। कश्यप के पुत्र सूर्य हुए। सूर्य के सात पुत्रों में से एक वैवस्वत मनु हुए जिन्हें अर्क-तनय (यानि सूर्य के पुत्र) के नाम से भी जाना गया। इन्हीं वैवस्वत मनु ने अपने पिता सूर्य के नाम से 'सूर्यवंश' की स्थापना की। प्राचीन काल से ही 'सूर्यवंश' अपने पर्यायवाची शब्दों, जैसे आदित्यवंश, अर्कवंश, रविवंश, मित्रवंश इत्यादि के नाम से भी जाना जाता रहा। उदाहरण के तौर पे रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में 'सूर्यवंश' कुलज रामचन्द्रजी को 'अर्ककुल शिरोमणि', 'रविकुल गौरव' इत्यादि के नाम से भी पुकारा गया है। कहने का सार ये है कि सूर्यवंश कुल के क्षत्रिय स्वयं को 'सूर्यवंश' के पर्यायवाची शब्दों से भी संबोधित करवाते रहे। समय के साथ 'सूर्यवंश' के पर्यायवाची शब्दों जैसे 'अर्कवंश', 'आदित्यवंश', 'मित्रवंश' इत्यादि के नाम पर सूर्यवंश की समानांतर क्षत्रिय शाखाएं स्थापित हो गयीं, हालांकि ये अपने मूलनाम 'सूर्यवंश' के नाम से भी जानी जाती रहीं। अर्कवंश- जिन सूर्यवंशी क्षत्रियों ने 'सूर्य' के पर्यायवाची शब्द 'अर्क' के नाम से अपनी पहचान स्थापित की, वे ही कालांतर में 'अर्कवंशी क्षत्रिय' कहलाये। अर्कवंशी क्षत्रिय वास्तव में सूर्यवंशी क्षत्रिय ही थे जो अपने कुल-देवता (पितामह) 'सूर्य' को उनके 'अर्क' स्वरूप में पूजते रहे। कालचक्र के साथ अनेकों बार जीतते-हारते अर्कवंशी क्षत्रिय अपने बुरे वक्त में 'अर्कवंशी' से 'अर्क', फिर 'अरक' कहलाने लगे। स्थानीय बोलचाल की भाषा में 'अर्क' शब्द बिगड़कर 'अरक' और धीरे-धीरे 'अरख' हो गया। इसी प्रकार 'मित्रवंशी' शब्द धीरे-धीरे बिगड़कर 'मैत्रक' हो गया। 

इतिहास-अर्कवंशी क्षत्रियों का इतिहास अत्यन्त गौरवशाली है। 'अर्कवंश' का इतिहास 'सूर्यवंश' के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है और 'अर्कवंश' के इतिहास को 'सूर्यवंश' के इतिहास से अलग नहीं ठहराया जा सकता। अर्कवंश के महानुभावों में भगवान् रामचन्द्रजी, अर्कबंधू गौतम बुद्ध, महाराजा तक्षक, सम्राट प्रद्योत, सम्राट बालार्क, सम्राट नन्दिवर्धन आदि प्रमुख थे।

वनवास को जाने से पहले 'अर्कवंश शिरोमणि' रामचंद्र जी ने निम्न मंत्र का उच्चारण करके अपने कुल-देवता 'सूर्य' ('अर्क') का आवाहन किया था-
'ॐ भूर्भुवः स्वः कलिंगदेशोद्भव काश्यप गोत्र रक्त वर्ण भो अर्क, इहागच्छ इह तिष्ठ अर्काय नमः'
                                                                         

लंका जाने हेतु समुद्र पर विशाल सेतु बाँधने से पहले श्रीराम ने समुद्र तट पर 'शिवलिंग' स्थापित करके भगवान् शिव की आराधना की थी और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था। इस घटना के बाद से सूर्योपासक अर्कवंशी क्षत्रियों में 'शिव-उपासना' का प्रचलन भी बढ़ा. 

मध्यकाल के अर्कवंशी क्षत्रिय महापुरुषों में महाराजा कनकसेन (जिनसे चित्तौड़ के सूर्यवंशी राजवंश की उत्पत्ति हुयी), सूर्योपासक महाराजा भट्ट-अर्क (जिन्होंने गुजरात में सूर्य-उपासना का प्रचालन बढ़ाया), सूर्योपासक सम्राट हर्षवर्धन, सूर्योपासक महाराजाधिराज तिलोकचंद अर्कवंशी (जिन्होंने सन ९१८ ईसवीं में राजा विक्रमपाल को हराकर दिल्ली पर अपना राज्य स्थापित किया था), महाराजा खड़गसेन (जिन्होंने मध्यकाल में अवध के दोआबा क्षेत्र पर राज किया और खागा नगर की स्थापना की), महाराजा सल्हीय सिंह अर्कवंशी (जिन्होंने उत्तर-प्रदेश के हरदोई जिले में आने वाले संडीला नगर की स्थापना की) तथा महाराजा मल्हीय सिंह अर्कवंशी (जिन्होंने मलिहाबाद नगर स्थापित किया), इत्यादि प्रमुख हैं. 

प्राचीन काल से मध्यकाल तक अर्कवंशी क्षत्रियों ने अवध के एक विशाल हिस्से, जैसे संडीला, मलीहाबाद, खागा, अयाह (फतेहपुर), पडरी (उन्नाव), साढ़-सलेमपुर (कानपुर), सिंगरुर (इलाहबाद), अरखा (रायबरेली), बहराइच, इत्यादि पर अपना प्रभुत्व कायम रखा. कहा जाता है कि अर्कवंशी क्षत्रिय एक समय इतने शशक्त थे कि उन्होंने आर्यावर्त में दशाश्वमेघ यज्ञ करवाकर अपनी शक्ति प्रदर्शित की थी और किसी भी तत्कालीन राजवंश में उन्हें ललकारने की हिम्मत नहीं हुयी. फतेहपुर (अयाह) में अर्कवंशी क्षत्रियों द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग आज भी खँडहर के रूप में मौजूद है और अर्कवंशी क्षत्रियों की गौरवशाली गाथा सुना रहा है. 

अर्कवंशी क्षत्रियों के भेद- इन क्षत्रियों के अन्य मुख्य भेद हैं खंगार (जिनका बुंदेलखंड में एक गौरवशाली इतिहास रहा है), गौड़, बाछल (बाछिल, बछ-गोती), अधिराज, परिहार, गोहिल, सिसौदिया, गुहिलौत, बल्लावंशी, खड़गवंशी, तिलोकचंदी, आर्यक, मैत्रक, पुष्यभूति, शाक्यवंशी, अहडिया, उदमतिया, नागवंशी, गढ़यितवंशी, कोटवार, रेवतवंशी, आनर्तवंशी, इत्यादि. अर्कवंशी क्षत्रियों की एक प्रशाखा 'भारशिव' क्षत्रियों के नाम से भी प्रसिद्द हुयी है. ये मुख्यतः भगवान् शिव के उपासक थे और शिव के लिंग स्वरूप को अपने गले में धारण किये रहते थे. शिव का भार (वजन) उठाने के कारण ही ये 'भारशिव' (भारशिव = भार (वजन) + शिव (भगवान)) कहलाये. भारशिव क्षत्रिय अत्यंत वीर और पराक्रमी थे. इनकी राजधानी पद्मावती और मथुरा में थी. प्राचीन काल में जब कुषाणों ने काशी नगरी पर आक्रमण करके उस पर अपना कब्ज़ा कर लिया तो तत्कालीन काशी-नरेश ने पद्मावती के भारशिव क्षत्रियों से मदद मांगी. भारशिव क्षत्रियों ने अपनी वीरता से काशी नगरी को कुषाणों से मुक्त करवा दिया और इस विजय के बाद उन्होंने गंगा-घाट पर अश्वमेघ यज्ञ करवाए. भारशिव क्षत्रिय अपने समय के वीरतम क्षत्रियों में से एक थे और इनके वैवाहिक सम्बन्ध सभी तत्कालीन राजवंशों से थे, इनमें वाकटक राजवंश का नाम प्रमुख है. 

सूर्य उपासना- भारतीय हिन्दू समाज में आदि-काल से ही सूर्य-उपासना का एक प्रमुख स्थान रहा है. वेद-पुराणों में सूर्य-उपासना हेतु 'सूर्य-नमस्कार' को विशेष महत्व दिया गया है. इस विधि के तहत सूर्यदेव के बारह स्वरूपों की १२ आसनों द्वारा उपासना की जाती है. 
प्रत्येक आसन में भगवान् सूर्य को उनके विभिन्न नामों के मन्त्रों से नमस्कार किया जाता है. ये मंत्र हैं-

ॐ रवये नमः
ॐ सूर्याय नमः
ॐ भानवे नमः
ॐ खगय नमः
ॐ पुष्णे नमः
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
ॐ मारिचाये नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ सावित्रे नमः
ॐ अर्काय नमः
ॐ भास्कराय नमः
ॐ मित्राय नमः

जय श्री राम 

           जय अर्कवंश.......

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