अर्कवंशी क्षत्रियों की दुविधा- क्या हम क्षत्रिय हैं?

अर्कवंशी क्षत्रियों की दुविधा- क्या हम क्षत्रिय हैं?
सदियों तक अज्ञानता और गुमनामी के अंधेरों में लुप्त रहने के बाद अब अर्कवंशी क्षत्रियों में अपने इतिहास को जानने व अपनी पहचान को स्थापित करने की ललक जाग उठी है, जिसके फलस्वरूप अर्कवंशी युवाओं के दिमाग में बहुत से प्रश्न उठने लगे हैं। इनमें से कुछ प्रश्न तो स्वभाविक हैं परन्तु कई प्रश्न दूसरे समाज के मूर्ख व अज्ञानी लोगों से बहस करने के कारण पैदा होते हैं। क्या हम क्षत्रिय हैं, यदि हां तो दूसरे हमें क्षत्रिय क्यों नहीं मानते; समाज का पढ़ा-लिखा, संपन्न तबका क्षत्रियों के रूप में स्वीकृत हो भी जाये तो कमजोर व निर्धन वर्ग को कैसे ये मान्यता मिलेगी; क्षत्रिय बनने से कहीं आरक्षण की सुविधा न समाप्त हो जाये - इस प्रकार के कई प्रश्न युवाओं के मन में कौंधते रहते हैं, जिनका समाधान जरूरी है।
इन प्रश्नों के उत्तर जानने से पहले ये समझना जरूरी है कि 'क्षत्रिय' शब्द का मतलब क्या है, क्षत्रिय कौन होता है? हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था के अनुसार जिस वर्ण को शासन व प्रजा की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गयी, उसे क्षत्रिय कहा गया। शुरूआत में सिर्फ दो ही क्षत्रिय वंश थे- सूर्यवंश और चंद्रवंश। बाद में इन्हीं वंशों की शाखाएं-प्रशाखाएं बनती चली गयीं। जैसा कि ऊपर भी बताया गया है, सूर्यवंश को अन्य पर्यायवाची शब्दों से भी जाना जाता था, जैसे आदित्यवंश, रविवंश, अर्कवंश, मित्रवंश इत्यादि। रामायण में रामचंद्र को 'अर्क-शिरोमणि', 'रविकुल गौरव' आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। बहुत से सूर्यवंशी राजे-महाराजे अपने नाम के साथ 'अर्क' शब्द लगाना अपनी शान समझते थे, जैसेभट्टार्क, विक्रमार्क, बालार्क, इत्यादि। यानि 'अर्क' एक सम्मान-सूचक शब्द था जो कि सूर्यवंशी राजा अपने नाम के आगे लगाते थे और सूर्यवंश तथा अर्कवंश पर्यायवाची शब्दों के रूप में इस्तेमाल होते थे। जिन सूर्यवंशी क्षत्रियों ने 'अर्क' नाम से अपनी पहचान स्थापित की वे अर्कवंशी क्षत्रिय कहलाये। महाराजाधिराज तिलोकचंद जी ने अपने वंश को सूर्यवंश न कहकर अर्कवंश कहा। इसी वंश में खागा नगर स्थापक महाराजा खड़गसेन हुये, महाराजा सल्हीय सिंह और मल्हीय सिंह जैसे वीर हुये, ईर सिंह-वीर सिंह जैसे योद्धा हुये, खेत सिंह-खूब सिंह जैसे शासक-प्रशासक हुये। अयाह, बेरिहागढ़, अरखा, सांडी, कुंडार, नौरंगगढ़ जैसे तमाम किले, गढ़ियां व उनके खण्डहर अर्कवंश के गौरवशाली इतिहास के गवाह हैं। वक्त गुज़रने के साथ हम अपनी परम्परायें और इतिहास भूलते चले गये और गरीबी के कुचक्र में फंसकर हमारी स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। शासन-सत्ता के संघर्ष में हमारी दुगर्ति हो गयी। चूंकि अर्कवंशी क्षत्रिय अत्यन्त बहादुर और जुझारू थे इसलिये हमसे लोहा लेने वाली प्रत्येक शासक जाति ने न सिर्फ हमपे जुल्म किये बल्कि हमारा स्वाभिमान मिटाने के लिये हमारे इतिहास-भूगोल को नष्ट करने व दूषित करने में कोई कसर नहीं रखी। गरीबी के संघर्षों से जूझते हुये हमारे बारे में दूसरों ने जो भी भ्रांतियां फैलायीं वो हमने बिना खण्डन किये हुये स्वीकार कर ली और न सिर्फ स्वीकार की बल्कि उन्हें आत्मसात भी कर लिया, शायद इसलिये क्योंकि हम अपना वास्तविक इतिहास भूल चुके थे।
हम क्षत्रिय हैं कि नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में सबसे पहले ये समझना जरूरी है कि प्रत्येक मुल्क में, धर्मों और सभ्यताओं में शासक जातियां हुयी हैं, पर सिर्फ हिन्दू धर्म में शासक जातियों के लिये 'क्षत्रिय' शब्द का प्रयोग किया गया। जिसका तात्पर्य ये है कि यदि आप हिन्दू धर्म की किसी भी शासक जाति के वंशज हैं तो आपको 'क्षत्रिय' कहलाने का अधिकार आपके धर्मशास्त्र आपको देते हैं। वर्ण-व्यवस्था के विरोध काल में बहुत से हिन्दू अर्कवंशी राजाओं/शासकों ने बौद्ध व जैन धर्म अपना लिया था। इन धर्मों के क्षय के बाद अर्कवंशी शासकों के वंशजों ने जब वापस हिन्दू धर्म अपनाया तो हिन्दू धर्म के पाखण्डी ठेकेदारों ने इन्हें क्षत्रिय मानने से इंकार किया। परन्तु आज जब अधिकतर अर्कवंशी हिन्दू हैं तो क्षत्रिय कहलाना हमारा अधिकार है क्योंकि हम शासक जाति के वंशज हैं। चूंकि अब हिन्दू धर्म में वर्ण/जाति का निर्धारण जन्म से होता है, कर्म से नहीं, तो प्रत्येक अर्कवंशी, चाहे वो मजदूरी करता हो, कपड़े धुलता हो, सब्ज़ी बेचता हो, खेती करता हो, नौकरी करता हो, उसे क्षत्रिय कहलाने का अधिकार है। ब्राह्मण चाहे जूते बेचता हो, सफाई कर्मचारी हो, चपरासी हो, गार्ड हो, खुद को ब्राह्मण ही कहता है, वो कर्म के अनुसार अपना वर्ण नहीं बदलता तो हम क्यों अपने कर्मों और गरीबी का रोना रोयें। जो नियम उनके लिये हैं वही हमारे लिये। तो सार यही है कि हम शत-प्रतिशत क्षत्रिय हैं।
यहां पर एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि 'क्षत्रिय', 'राजपूत' और 'ठाकुर', ये तीनों पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। 'राजपूत' मध्यकाल में उत्पन्न हुआ एक मिश्रित 'नव-क्षत्रिय' वर्ग है, जो कि शासन-सत्ता पाने के बाद क्षत्रियों के रूप में स्थापित हो गये। किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में शासक जाति के लिये 'राजपूत' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। श्रीराम व श्रीकृष्ण को हर जगह क्षत्रिय ही लिखा गया है राजपूत कहीं नहीं। ये ध्यान रखें कि राजपूत क्षत्रिय वर्ग का एक हिस्सा मात्र हैं न कि संपूर्ण क्षत्रिय वर्ग। भारत की कई योद्धा जातियां क्षत्रिय तो हैं पर राजपूत नहीं, जैसे महाराष्ट्र के भोंसले व अन्य मराठे, केरल के नायर, असम के कलीता। 'ठाकुर' का अर्थ होता है 'स्वामी' और ये शब्द भगवान के लिये प्रयोग होता था पर ब्रिटिशकाल में शक्तिशाली सामंतों और जमींदारों ने खुद को ठाकुर कहना शुरू कर दिया। इस उपाधि का प्रयोग राजपूत जमींदारों के अलावा अन्य जातियों के सशक्त जमींदार भी करते हैं, जैसे बिहार और बंगाल के भूमिहार, ब्राह्मण व कायस्थ जमींदार, इसलिये 'ठाकुर' शब्द एक उपाधि है न कि कोई जाति।
जहां तक सवाल है दूसरों का हमें क्षत्रिय मानने का, तो इसका जवाब ये है कि पहले हम तो खुद को क्षत्रिय कहना शुरू करें। जब सभी अर्कवंशी एक स्वर में स्वयं को क्षत्रिय कहना शुरू करेंगे तो दूसरे भी मानने लगेंगे। ‘यादव' जाति का उदाहरण ही देख लीजिये। पहले उन्हें सब ‘अहीर', 'दुधहा' आदि शब्दों से बुलाते थे, पर आज जब हर अहीर खुद को श्रीकृष्ण का वंशज कहता है और यादव कहना और कहलाना पसंद करता है तो अन्य लोग भी उनके लिये 'यादव जी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं, और उन्हें कृष्ण जी का वंशज कहने लगे हैं। इसलिए पहले खुद में आत्मविश्वास पैदा करें और खुद को क्षत्रिय कहें, जब आप खुद का और अपने वंश का सम्मान करना सीखेंगे तभी दूसरे आपका सम्मान करेंगे। दूसरों ने सिर्फ हमें नीचा दिखाने के लिये हमारे बारे में अनर्गल बातें फैलायीं और हमने अपनी अज्ञानता और गरीबी के चलते उसे बिना विरोध के स्वीकार कर लिया। अब इस गलती को हमें सुधारना होगा। जो आपको क्षत्रिय नहीं मानते उनसे उनका इतिहास पूछकर देखिये बोलती बंद हो जायेगी उनकी, बस फर्क यही है कि वो स्थापित हैं और हम विस्थापित। उन्नाव के कुछ गांवों में एक जाति निवास करती है जिन्हें गमेले कहते हैं। आप उनके गांवों में जाकर देखिये बहुत गरीबी और अशिक्षा है, पर वहां किसी गरीब से गरीब व्यक्ति से पूछिये कि किस जाति के हो तो वो शान से कहेगा कि वो गमेले ठाकुर है। उनमें से किसी को अपना इतिहास भले ही न पता हो पर वो स्वाभिमान से खुद को ठाकुर कहते हैं और सब उन्हें ठाकुर मानते भी हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि दूसरे हमको क्या कहते और समझते हैं ये इस बात पर निर्भर करता है कि हम खुद को क्या कहते और समझते हैं। जब हम खुद का सम्मान करेंगे तभी दूसरे हमारा सम्मान करेंगे। जब हम एक स्वर में खुद को क्षत्रिय कहेंगे तभी दूसरे भी हमें क्षत्रिय कहेंगे। आज न सही, आने वाले समय में, पर अगर कोई ये सोचे कि फर्जी जाति प्रमाण बनवाकर जाति बदल ले और लाभ उठा ले तो ऐसे काम नहीं चलेगा। भारत के विभिन्न राज्यों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी अनेक क्षत्रिय जातियों को शासन ने आरक्षण दिया हुआ है, जैसे कर्नाटक के अग्निकुल क्षत्रिय, आंध्रा के आर्य क्षत्रिय, असम के कोच राजबंशी, उड़ीसा के चास खांडायत, इत्यादि, ऐसे ही उत्तर प्रदेश के अर्कवंशी क्षत्रियों को अन्य पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी.) का आरक्षण शासन ने दिया है, तथा इसका लाभ अर्कवंशियों को लेना चाहिये, परन्तु, इस सुविधा के अतिरिक्त यदि कोई अर्कवंशी फर्जी जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर व जाति बदलकर, धोखाधड़ी कर लाभ उठाता है तो ऐसे कायर और गद्दार व्यक्ति को अर्कवंशी कहलाने का कोई अधिकार नहीं है।
जो भी हमारे इतिहास को पढ़ रहा है और समझ रहा है वो हमें क्षत्रियों के रूप में स्वीकार कर रहा है, बाकि मूर्खों से बहस करने से कोई फायदा नहीं है, सिर्फ खुद का आत्मविश्वास बनाये रखें। पढ़े-लिखे और समझदार राजपूत बुद्धिजीवियों को हमें क्षत्रियों के रूप में स्वीकार करने में आपत्ति खत्म होती जा रही है क्योंकि वो इस बात को समझने लगे हैं कि हमारे इतिहास की कड़ियां कहीं न कहीं उनसे जुड़ी हुयी हैं क्योंकि हम प्राचीनतम शासक वंशों में से एक हैं,
और यदि हम क्षत्रिय नहीं हैं तो नवस्थापित क्षत्रिय (राजपूत) भी क्षत्रिय नहीं हो सकते। बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार ठा. विश्वनाथ सिंह खंगार ने अपनी पुस्तक 'आर्यावर्त' में तो यहां तक लिखा है कि सभी प्राचीन क्षत्रिय राजवंशों, चाहे वो हर्यक वंश हो, मौर्य वंश हो या गुप्त वंश सभी की कड़ियां कहीं न कहीं अर्कवंश से जुड़ी हुयी हैं।
कोई भी इंसान, चाहे मजदूर हो या दरिद्र, सभी के लिये एक चीज अत्यंत आवश्यक होती है और वो है आत्मसम्मान और स्वाभिमान । इनके बिना कोई भी इंसान जीवन में आगे नहीं बढ़ सकता। जैसा कि ऊपर चर्चा की गयी है कि प्रत्येक अर्कवंशी को क्षत्रिय कहलाने का अधिकार है, चाहे वो गरीब मजदूर हो या किसान। गरीब अर्कवंशियों को खुद को क्षत्रिय कहने में भले ही झिझक हो, क्योंकि शायद वो स्थापित क्षत्रियों (राजपूतों) की तुलना में खुद को दीन-हीन
और कमजोर पाते हों परंतु फिर भी उन्हें अपने इतिहास का ज्ञान होना चाहिये। उन्हें एहसास होना चाहिये कि कालचक्र ने हमें सत्ता से विस्थापित कर दिया पर कुल से हम क्षत्रिय हैं। भले ही दूसरों के सामने गरीब अर्कवंशी खुद को क्षत्रिय कहने में संकोच करें पर अपने बच्चों को ये जरूर सिखायें कि वो वीर क्षत्रियों के वंशज हैं, और जो अर्कवंशी संपन्न हो गये हैं उन्हें तो बेझिझक खुद को क्षत्रिय कहना चाहिये और दूसरे अर्कवंशियों को भी इस हेतु प्रेरित करना चाहिये।
सभी भाइयों से अनुरोध है कि वो अपने गौरवशाली इतिहास का समाज में प्रचार करें तथा इस ओर उदासीन न रहें क्योंकि यहां सवाल हम सबकी पहचान का है, हमारी भावी पीढ़ियों की पहचान का है। हमें सिर्फ आज के बारे में नहीं, आज से पचास-सौ वर्ष आगे के बारे में भी सोचना चाहिये कि उस वक्त भी जब अर्कवंश की चर्चा हो तो हमारे वंशज गर्व से कह सकें कि हम मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के वंशज हैं, करुणा के सागर भगवान बुद्ध के वंशज हैं, कि हम क्षत्रिय वीरों की संतान हैं, हम 'सिंह' हैं और हमारी रगों में महाराजा तिलोकचंद, खड़गसेन, सल्हीय सिंह-मल्हीय सिंह जैसे शेरों का खून दौड़ रहा है।

🚩🚩जय मां भवानी 🚩🚩
       🚩🚩जय क्षत्रिय धर्म 🚩🚩
              🚩🚩जय राजपुताना🚩🚩
🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

Comments

Popular posts from this blog

अर्कवंशी क्षत्रियों का संक्षिप्त इतिहास

सूर्यवंशी (अर्कवंशी) क्षत्रिय कुल देव एवं क्षत्रिय साम्राज्य वंशावली

सूर्यवंश ( अर्कवंश ) का संक्षिप्त परिचय